शनिवार, 15 सितंबर 2012

दूरदर्शी कदम, तैयारी 2019 की

पिछले कई महीनों से भ्रष्टाचार व घपलों-घोटालों में घिरी, विरोधियों का विरोध झेल रही और विदेशी मीडिया तक में किरकिरी करा रही मनमोहन सरकार ने चुप्पी तोड़ी, गुस्सा निकाला और बड़ा संदेश दिया कि सरकार चाहे तो क्या नहीं कर सकती। हां, कुछ भी। पहले दिन डीजल पर दाम बढ़ाए और रसोई गैस का सालाना छह का लिमिट फिक्स किया। अभी देश सकते में ही डूबा था कि दूसरे दिन खुदरा में विदेशी दुकानों के लिए भी रास्ता खोल दिया। बवाल मचना ही था। मचा कहां, अभी मचना शुरू ही हुआ कि तीसरे दिन सरकार का जिद्दी बयान था, नहीं झुकेंगे। तो तीन दिन की ये खबरें हैं। आइए, अब इसके निहितार्थ पर थोड़ी चर्चा करें।

इन तीन दिनों में इस मसले पर कई लोगों से कई दौर में कई तरह की बातें हुईं। किसी को गुस्सा था तो किसी को दुख पर किसी का नजरिया तो कुछ और ही था, जो था बड़ा मार्केबल, जो था शेयर करने के लायक। गुस्सा कि ऐसी सरकार को तत्काल हट जाना चाहिए, हटा देना चाहिए और दुख कि ये क्या हो रहा है, महंगाई में अब कैसे दिन कटेंगे, साल में छह सिलेंडरों के बाद सातवां सिलेंडर साढ़े सात सौ रुपये में कैसे खरीदेंगे....। पर, दो लोगों की बातें मुझे बड़े मार्के की लगीं। यह आलेख उन्हीं के विचारों को शेयर करता है। उम्मीद है, इन विचारों से सोचों को कुछ गति मिलेगी। 

पहला है मेरा तीसरे नंबर का भाई। कल मैं बिहार में था और उसके साथ मोटर साइकिल पर मुजफ्फरपुर से लालगंज जा रहा था। मुजफ्फरपुर में ही एक पेट्रोल पंप पर तेल डलवाने के लिए रुका। कई मोटर साइकिल वालों की लाइन थी। भाई बाइक ड्राइव कर रहा था। मैं उतर कर बगल में खड़ा हो गया। पीछे-आगे कई लोग लाइन में लगे थे। आदतन मैंने यों ही बातचीत शुरू कर दी। सरकार को क्या हो गया है भई? डीजल की कीमत बढ़ा दी, रसोई गैस पर अंकुश लगा दी, अब विदेशी दुकानों के लिए रास्ता खोल दिया...। अभी मेरा वाक्य खत्म भी नहीं हुआ था कि आगे-पीछे लाइन में लगे कई लोग एक साथ बोलने लगे, ये हद है...., लगता ही नहीं कि लोकतंत्र है..., विदेशियों के हाथों सरकार बिक गई है.... मनमोहन पगला गया है...., सोनिया को देश से क्या मतलब...., लोग ही चूति... हैं जो इस पार्टी को वोट देते हैं, इस पार्टी को गद्दी पर बिठाते हैं....।

आखिर में भाई का कमेंट आया। मार्केबल कमेंट। भैया, लगता है मनमोहन सिंह ने कसम खा ली है कि 2014 के चुनाव में वोट नहीं लेना है। सरकार मानो साफ-साफ कह रही है कि देशवासियो, मत देना अगले चुनाव में मुझे एक भी वोट, सरकार कह रही है कि मुझे नहीं चाहिए तुम्हारा वोट...। उफ... लोकतांत्रिक प्रणाली वाले देश में सत्तारूढ़ सरकार के प्रति ऐसे-ऐसे कमेंट और सरकार फिर भी सत्तारूढ़, सोचकर रोएं खड़े हो गए। दिमाग के विचारों को झटका। भाई का नंबर आ गया था, बाइक में पेट्रोल डल चुका था और हम आगे बढ़ चुके थे। अब बात का टापिक बदल चुका था। बारिश हो रही थी और सड़क खराब थी। बातचीत खुद और गोड़ी दोनों को बचाने की होने लगी।

कल ही रात ट्रेन पकड़ी और बनारस आ गया। यहां दफ्तर में मिले वरिष्ठ पत्रकार सुरेश पांडेय जी। आज की खबरों की प्रायरिटी पर चर्चा के साथ हालचाल और कुछ अनौपचारिक बातें भी होने लगीं। अनौपचारिक बातों का मुद्दा भी वही था - मनमोहन के फैसले। सुरेश पांडेय जी का जो विचार सामने आया, वह भी मुझे कम मार्के का नहीं लगा। मुलाहिजा फरमाइए।

सुरेश पांडेय जी ने कहा, मनमोहन सरकार बड़ा दूरदर्शी कदम उठा रही है। पैसे बना रही है। मेरा स्वाभाविक सवाल था - पैसे बना रही है, दूरदर्शी कदम उठा रही है? उन्होंने कहा, हां। इस सरकार के अब सिर्फ दो ही मिशन हैं। पहला, जब तक सरकार है, तब तक खूब-खूब पैसा बनाओ और दूसरा, टार्गेट 2014 नहीं, टार्गेट है 2019। मैंने कहा, जरा डिटेल में समझाइए।

सुरेश जी ने कहा, कांग्रेस को मालूम है कि जितने आरोपों में उसकी सरकार घिर चुकी है, उस हिसाब से 2014 के चुनाव में तो वह जीतने से रही। उसे अच्छी तरह मालूम है कि 2014 के चुनाव के बाद उसे विपक्ष में बै ठना है और लड़ना है 2019 में। 2019 तक लोग भूल चुके होंगे। लोगों के सामने होगी उस सरकार की नाकामियां, जो सत्तारूढ़ होगी और विकल्प होगी सिर्फ कांग्रेस। तब तक नेता के रूप में राहुल गांधी भी बेहतर ढ़ंग से प्रोजेक्ट किए जा चुके होंगे। नए वादे और नए इरादों के साथ। इस हिसाब से मनमोहन ने बड़ा दूरदर्शी कदम उठाया है। वह फैसले ले रहे हैं। जनता से पैसा उगाही के फैसले। यह उगाही कहां से शुरू होकर कहां पहुंचेगी, क्या यह कहने की बात है? जिस देश में प्रखंडों से जाति प्रमाण पत्र बनवाने में पांच सौ, हजार का वारा-न्यारा हो जाता है, वहां डीजल के दाम पांच रुपये, रसोई गैस की कीमतें डबल और विदेशी कंपनियों को कारोबार का रास्ता देने में कितने का वारा-न्यारा होगा, क्या यह कहने की बात है। यह पांच साल तक विपक्ष में बैठने और पांच साल बाद चुनाव लड़ने की तैयारी है।

सुरेश जी को मैं क्या जवाब देता? हां, उनकी बातों ने सोचों की शृंखला को एक विस्तार जरूर दिया। आप भी सोचिए, अभी समय है....। फिर मिलूंगा।
 

मंगलवार, 7 अगस्त 2012

हालिया चोटें - फिजा और गीतिका

चांद की फिजा की रहस्यमय मौत और एयर होस्टेस गीतिका की खुदकुशी की खबरें पढ़ी आपने? इन दोनों वारदातों से कुछ सबक लिया आपने? जरूर लिया होगा। लेकिन क्या, यह सबसे बड़ा सवाल है। आप दोष भी दे रहे होंगे, धिक्कार भी रहे होंगे, पर सवाल है किसे? चांद को? जिसकी मोहब्बत में एक लड़की ने न केवल अपना परिवार छोड़ दिया, धर्म बदल लिया, बल्कि सारे जमाने के सामने खुद को रुसवा करने से भी बाज नहीं आई और उसके मरने के बाद जो उसके साथ किसी रिश्ते से भी पल्ले झाड़ता चल रहा है? उस ऊंचे राजनैतिक रसूख वाले हांडा को जिसकी एयरलाइंस कंपनी में गीतिका नौकरी करती थी और वहां से नौकरी छोड़ देने के बाद उस पर न जाने क्यों जो फिर से नौकरी ज्वायन कर लेने का दबाव बना रहा था?

माफ कीजिएगा, लेकिन कहना चाहूंगा कि इन मौतों के लिए सिर्फ चांद या हांडा को ही जिम्मेवार ठहरा देना काफी नहीं होगा। न, कतई नहीं। जरा आगे की लाइनों पर गौर फरमाइए। हम क्या कर रहे हैं? थोथी दलीलें, बकवास बातें, ऊंची उड़ानों की नई नई जिहादें, नारी की आजादी की पूरी तरह नंगी शिक्षाएं। हकीकत से आंखें मूंदें इक्कीसवीं सदी का अफसाना लिख रहे हैं, तराना गा रहे हैं। और क्या चाहिए इंडिया, बस हो गया बेड़ा पार। आजादी के नाम पर लड़कियों को सड़कों पर निकाल दिया, नंगा कर दिया। बाहर क्या हाल है? कदम-कदम पर लुटेरे, चोर, बदमाश, शोहदे, लफंगे बेलगाम घूम रहे हैं। और बेलगाम क्यों, सुरक्षा में, अत्याधुनिक हथियारों से लैस, ताकतवर बनकर। अब लड़कियों के साथ छेड़खानी हो रही है, बलात्कार हो रहा है, हत्या हो रही है, लाश में कीड़े पड़ रहे हैं। और हम गीत गा रहे हैं, इक्कीसवीं सदी में यह क्या हो रहा है? यह क्या हो रहा है?

समाज को विचार करना होगा। विचार करना ही होगा कि किसकी कितनी आजादी जरूरी है। यह समझना होगा कि विपरीत लिंगों के प्रति आकर्षण सहज और स्वाभाविक है। हमारे पूर्वजों ने महिला और पुरुष के लिए कुछ अवधारणाएं यूं ही स्थापित नहीं कर रखी थीं, कुछ नियम-कानून-शर्तें यूं ही नहीं बना रखे थे। हम क्या कर रहे हैं? अंधानुकरण। यह जिन दोषों को अपने साथ लेकर आ रहा है, ला चुका है, उसे क्या कहने की जरूरत है? बसों में, रेलों में, मेट्रो में, सड़कों पर, दफ्तरों में यानी  सरेआम क्या नहीं दिख रहा? एक पार्क में चले जाइए, बैठ नहीं पाएंगे। जोड़ों का राज है। किसी सी-बीच पर घूम आइए, सब कुछ खुल्लम-खुल्ला है। राम, कृष्ण, परमहंस और गांधी, नेहरू, सुभाष की धरती पर प्यार का खेल अब सरेआम है। कहीं रेव पार्टी है तो कहीं असली पार्टी..... एक मर्यादा, एक परंपरा, महिला-पुरुषों के बीच का एक अनुशासन टूट गया है, क्या ऐसा नहीं लगता? मान्यताएं टूटती हैं तो चोट सीधे दिलों पर या दिमागों पर ही लगती है। और यह लग रही है। हालिया इन चोटों का नाम है फिजा की सड़ी गली लाश और गीतिका की खुदकुशी।

और यह इस सीरीज की न तो पहली चोट है और निश्चित मानिए, न आखिरी है। जब आप इन पंक्तियों को पढ़ रहे होंगे तो निश्चित रूप से देश के किसी कोने में कोई गीतिका खुदकुशी कर रही होगी या किसी फिजा की लाश को कीड़े चाट रहे होंगे। सवाल है कि हम कब तक वर्जनाओं के तोड़ने का, परंपराओं के ध्वस्त करने का, मर्यादाओं के नेस्तनाबूत कर देने का, आचरण और चरित्र के भेद को पाट देने का, रीति-रिवाजों से दूर चले जाने का, संस्कृति को अंधानुकरण की काली चादर से ढंक देने का  अपना दोष छुपाते रहेंगे? कब तक? कब तक इक्कीसवीं सदी में पहुंच जाने का गीत गाते रहेंगे और कब तक व्यवस्थाओं की जमीनी हकीकत से आंखें बंद किए रहेंगे? आखिर कब तक? और आखिरी बात। बिजलियां गिरी हैं, घर जले हैं, मगर सब कुछ अभी राख नहीं हुआ। बस, हमें थोड़ा सा संभलना होगा और संभालना होगा अपने नौनिहालों को। सवाल है कि कौन यह जिम्मेवारी निभाएगा, कौन?

शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

अन्ना तुम्हें नमन


अन्ना ने भी इस सपने के इतनी जल्दी सच होने की उम्मीद नहीं की थी, जिस पीढ़ी के बारे में माना जा रहा था कि आगे निकलने की होड़ में वो कुछ भी पीछे छोड़ सकती है। अपना देश संस्कृति यहाँ तक कि अपना परिवार भी वही आज अन्ना के साथ खड़ी है। अन्ना के अनशन के आगे सरकार घुटने टेकेगी या नहीं, मजबूत लोकपाल बिल क्या कभी बन पाएगा? ये सवाल अब उतना मायने नहीं रखता जो अन्ना करना चाहते थे वो तो उन्होंने कर दिखाया। अनशन से बड़ा काम गिरफ्तारी ने कर दिया । जनता इस तरह सड़कों पर आ गई कि कांग्रेस की जान साँसत में आ गई ।
अन्ना के बारे में कहा गया था कि न तो महाराष्ट्र के बाहर उनकी कोई पहचान है नही पीछे कोई संगठन. फिर भी आज दिल्ली से लेकर पटना तक जनसैलाब उमड़ पड़ा है। ये कहने वाले भूल गए कि अन्ना की अदम्य इच्छाशक्ति के साथ देश का मीडिया भी खड़ा है। इस पर शायद ही किसी को आपत्ति हो कि अन्ना की आवाज को जनता की आवाज मीडिया ने बनाया। निगमानंद के अनशन व अन्ना के अनशन में फर्क मीडिया ने ही पैदा किया। आज जो लोग जुटे हैं वो सिर्फ अन्ना का साथ देने क लिये ही नहीं खड़े वे खड़े हैं भ्रष्टाचार में आकंठ डूब चुके अपने जनप्रतिनिधियों के खिलाफ अपना गुस्सा जाहिर करने के लिए। सक्षम विपक्ष के अभाव में जनता को तलाश थी एक ऐसे चेहरे की जो निस्वार्थ हो,जिसके पीछे वो आँखे मूंदकर चल सकें। जनमानस के भीतर सुलग रही आग को अन्ना ने तो सिर्फ हवा दी है, उसे प्रचंड अग्नि का रूप तो केंद्र सरकार के दमन ने दिया। रामलीला मैदान में बाबा रामदेव के साथ शांतिपूर्वक विरोध कर रहे लोगों पर जिस तरह से लाठियाँ बरसाई गई वो सबने देखा, जनता अब ये सब नहीं भूलती, मीडिया भूलने ही नहीं देता ।
टीवी पर २४ घंटे के लाइव कवरेज ने कपिल सिब्बल को खलनायक बना दिया। यहाँ तक कि दिल्ली की काँग्रेसी मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने भी इस मामले मे सिब्बल से पल्ला झाड़ लिया। शायद इसलिए इस बार सरकार ने अचानक ही मघ्यम मार्ग अपना लिया, पहले अन्ना पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए,उन्हें गिरफ्तार किया फिर अचानक यू टर्न ले लिया। राहुल गाँधी समझ गए थे कि रामदेव व अन्ना में फर्क है। अन्ना भागेंगे नहीं,न ही वो किसी तरह भी डिगाए जा सकेंगे। सबसे बड़ी बात ये कि उनके पास इस फौजी की कोई कमजोर कड़ी नहीं है ।
हम नमन करते हैं तुम्हे अन्ना। तुमने हमारे राष्ट्रीय बोध को जगाया। विश्वकप जीतने पर जीतने पर तिरंगा लेकर जश्न मनाने को ही देशभक्ति का पर्याय मानने वाले युवाओं को भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ना सिखाया। आज सड़कों पर ढोल बजाते, कैंडल मार्च करते, तो कभी माथा मुंडवाकर उसपर अन्ना लिखवाने वाले लोगों में पटना के डाक्टरों से लेकर मुंबई के डिब्बे वाले तक शामिल हैं। दिल्ली यूनिवर्सिटी के छात्रों से लेकर आँटों वाले तक है। यदि अन्ना सफल हो गए तो अब तक भीड़तंत्र कहा जाने वाला भारतीय लोकतंत्र परिपक्वता के पहले सोपान को पार कर लेगा।
विजयलक्ष्मी सिंह


मंगलवार, 4 जनवरी 2011

अतुलनीय अतुल

अमर उजाला के एमडी अतुल माहेश्वरी का निधन निश्चित रूप से पत्रकारिता के लिए एक अपूरणीय क्षति है, जिसे बहुत दिनों तक महसूस किया जाएगा। मैं यहां कुछ उन लम्हों को आप सभी से शेयर करना चाहूंगा, जब अमर उजाला, जालंधर में नौकरी के दौरान मैंने अतुल माहेश्वरी जी के साथ गुजारे। यह २००० से २००४ के वक्फे का वह यादगार पल है, जो मेरी जगह कोई भी होता तो भुला नहीं पाता। निश्चित रूप से उस दौरान और भी जो साथी रहे होंगे, उन्हें भी वे पल याद होंगे। आप इन लम्हों के साथ महसूस कर सकते हैं कि अतुलजी में अखबार और पत्रकारिता के प्रति कितना समर्पण भाव था, वे अखबार के पन्नों पर सुंदर सोचों को किस कदर ढालने का सपना देखा करते थे और खबरों का दबाव दूर करने की उनकी परिभाषा क्या थी।

पहला लम्हा – जालंधर के एक होटल में संपादकीय टीम के साथ अतुलजी की बैठक में एक मसला उठा कि अखबार में पन्ने बढ़ाने होंगे क्योंकि खबरों का फ्लो बढ़ रहा है। इंडिया किंग सिगरेट पीते थे अतुलजी। इस सवाल के साथ ही उन्होंने डिब्बी से एक सिगरेट निकाला, सुलगाया और बड़े ही गंभीरता से बोलने लगे। अमेरिका और ब्रिटेन में प्रकाशित होने वाले अखबारों का पूरा पैनल यहां इंडिया में बैठा है और उनकी तनख्वाह भी इतनी है जितनी हम अपने संपादकों तक को नहीं दे पाते, लेकिन उन अखबारों को देखिए, इंडिया की कितनी खबरें रहती हैं। प्रखंडों तक हमने संवाददाता रख दिए, इसका मतलब यह नहीं कि वहां के रोजाना झगड़ों व किस्सागोई को हम खबरों का हिस्सा समझें। सिकुड़ते विश्व में कब कौन सा स्पाट डेटलाइन बन जाए, इसका पता नहीं। ये नियुक्तियां इसलिए की गई हैं कि जिस दिन वह प्रखंड डेटलाइन बने, उस दिन हम अपने संवाददाता की खबर प्रकाशित करें।

दूसरा लम्हा – जालंधर स्थित अमर उजाला मुख्यालय में अतुलजी के साथ संपादकीय टीम की बैठक थी। पंजाब में अखबार बढ़ नहीं रहा था और संपादकीय के साथ अतुलजी की बैठक इन्हीं चिंताओं पर आधारित थी। मोबाइल बंद थे, रिसेप्शन को आदेश था कि कोई भी उनकी कॉल अगले आदेश तक ड्राप रखी जाए। बैठक में बातें बहुत हुईं, पर एक बात शेयर किए जाने के योग्य है। उनके निशाने पर था पहला पन्ना और उस पर छपने वाले वीभत्स फोटो। अपनी बातें उन्होंने बड़े ही भावुक अंदाज में रखीं।

कहने लगे, मैं जब भी सुबह जगता हूं तो दिन अच्छा गुजरे इसके लिए सबसे पहले ईश्वर की प्रार्थना को हाथ जोड़ता हूं। मेरा मानना है कि सुबह यदि मां को देख लूं तो दिन अच्छा रहता है। इसलिए मुझे मां ही सुबह जगाती हैं और अपने हाथों चाय देती हैं। मैं दिन की शुरूआत मां को देखकर और उनके हाथों बेड टी लेकर करना चाहता हूं। इरादा वही कि दिन की शुरूआत शुभ-शुभ हो। और आप हैरत करेंगे कि यदि अखबार सिरहाने आ गया तो फिर इन सब से पहले मैं अखबार खोल लेता हूं। न तो मुझे ईश्वर की प्रार्थना को हाथ जोड़ना याद रहता है और न ही मां के हाथों की चाय। अब बताइए पहले पन्ने पर कोई वीभत्स फोटो छापा गया हो, खूनखराबा-लाशें दिखाई गई हों तो क्या मैं उस वक्त वह सब कुछ देखने की मानसिकता में हो सकता हूं, होता हूं? नहीं। कम से कम मैं तो नहीं होता। मुझे लगता है, पाठकों के हाथों में अलस्सुबह पहुंचने वाले अखबारों के पहले पन्ने पर वीभत्स फोटो नहीं छापे जाने चाहिए। उसे देखकर पूरा दिन खराब हो जाता है। किसी का पूरा दिन खराब करना हमारा काम नहीं, अखबार का काम नहीं।

तीसरा लम्हा – जालंधर के ही अपने केबिन में बैठकर अखबार पलटने के दौरान अमृतसर संस्करण में छपी एक हेडिंग पर उनकी नजर टिक गई थी। शीर्षक था – अमृतसर भ्रूण हत्या में अव्वल। अतुलजी का कहना था कि अव्वल सकारात्मक प्रयासों को दर्शाने वाला शब्द है और भ्रूण हत्या आपराधिक कृत्य है। अमृतसर के लिए यह कृत्य प्रशंसनीय नहीं हो सकता और इसलिए इस शब्द का प्रयोग यहां गलत है। इसकी जगह कुछ और शब्द ढूंढ़े जाने चाहिए थे।

इसी दौरे में एक-दो दफे संपादकीय कक्ष से उनका गुजरना हुआ। वे संपादकीय प्रभारी जी के कक्ष में आ-जा रहे थे। हो यह रहा था कि जब वे संपादकीय प्रभारी जी के कक्ष में जा रहे थे तो काम करने वाले साथी आदर में खड़े हो गए। संभवतः अतुलजी ने इसे नहीं देखा। जब वे लौट रहे थे तो फिर संपादकीय की उस कतार के साथी कुर्सी छोड़कर खड़े हो गए। बस, अतुलजी भी रुक गए। उन्होंने जो कहा, वह बहुत दिनों तक याद रखने वाला है। उन्होंने कहा कि न तो आप प्राथमिक कक्षा के विद्यार्थी हैं और न ही मैं हंटर लेकर कक्षा में घूमने वाला टीचर। रिगार्ड में एक बार खड़े हो गए, चल गया पर बार-बार खड़ा होना ठीक नहीं। आप सम्मानजनक तरीके से रहें, यही मेरी इच्छा है।

अतुल जी शार्प ब्रेन के मालिक थे। किसी भी चीज को परखने और उसके विश्लेषण की उनमें विलक्षण प्रतिभा थी, यह एक बार नहीं, कई बार साबित हुआ। उनके व्यक्तित्व में कुछ ऐसा जरूर था, जिसे देखकर एक भरोसा जगता था कि चाहे कितनी भी बड़ी समस्या हो, उनके पास वह पहुंच गई तो उसका निदान मिल ही जाएगा। उनका निधन अमर उजाला के लिए ही नहीं, पूरे पत्रकारिता जगत और जागरूक पत्रकारों के लिए एक झटका है, एक सदमा है। ईश्वर इस सदमे को सहने की शक्ति दे।

बुधवार, 24 नवंबर 2010

इतनी बड़ी जीत का मतलब

बिहार विधानसभा चुनाव में जनता दल (यूनाइटेड) और भारतीय जनता पार्टी के गठबंधन ने स्पष्ट बहुमत लेकर जो इतिहास कायम किया है, उससे कई मतलब निकलते हैं।

मतलब एक - यह सूबे में विकास की जीत है। लोग अब जातिगत समीकरणों से ऊपर उठ चुके हैं।

मतलब दो - नीतीश का नेतृत्व, उनकी शैली तथा बीजेपी के भगवा चेहरे नरेंद्र मोदी और वरुण गांधी को बिहार में प्रचार के लिए आने से रोकना लोगों को पसंद आया है।

मतलब तीन - अभी यहां लोगों को कांग्रेस कबूल नहीं है। राहुल और सोनिया का ताबड़तोड़ दौरा भी काम नहीं आया।

मतलब चार - राजद और लोजपा सुप्रीमो क्रमश: लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान बिहार के लिए इतिहास हो गए हैं।

मतलब पांच - बीजेपी के लिए सबक। सिर्फ सांप्रदायिकता का नारा बुलंद करने से काम नहीं चलता। विकास के साथ रहने से कंधे मजबूत होते हैं।

आखिरी मतलब - बिहार में विकास की यह जीत सिर्फ बिहार में ही नहीं, देश भर में असर दिखाने वाली है। इस जीत के अगुआ नीतीश कुमार ने भी कुछ ऐसा ही कहा है।

सबक - काठ की हांड़ी बार-बार चूल्हा नहीं चढ़ती।

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

शुभकामनाएं

दीपावली पर सभी मित्रों को ढेर सारी शुभकामनाएं।

सोमवार, 7 सितंबर 2009

...और बदल गई दुनिया

खलियारी बस्ती में घुसते ही नाक पर हाथ रखना पड़ता था। मन तो करता था कि आंखें भी बंद कर लें। उफ, इतनी गंदगी। घरों में ही सुअर के बाड़े, गंदी बदबूदार नालियां, उसमें लोट-पोट होते सुअर। चारों ओर भिनभिनाते मच्छर। क्या नरक इसी को कहते हैं? बस्ती के लोगों पर सवालनुमा यह जुमला भी बेअसर था। पीढ़ियों से सुअर पालने, उसका मांस खाने वाले ये परिवार गंदगी और बीमारियों के अभ्यस्त हो चले थे। कितने ही बच्चे अकाल मृत्यु का ग्रास बन चुके थे। फिर भी बस्ती के लोग खुद को बदलने के लिए तैयार नहीं थे।

पक्की सड़क से दो सौ मीटर अंदर बसे इस गांव में मुसहरों के अलावा खरबार, बैंगा व चैरो जनजाति के लोग रहते हैं। पास का पूरा गांव बस्ती के लोगों घृणा करता था। अधिकांश तो इनसे कोई वास्ता ही नहीं रखते थे। परंतु कुमकुम इस बस्ती को लेकर चिंतित रहती थीं। उन्होंने आरोग्य सेविका बनते समय ही अपने गांव को स्वच्छ एवं रोगमुक्त करने का संकल्प लिया था। कुमकुम ने गांव में तो घर-घर कचरा फेंकने वाले सोखते गड्ढे बनवाए। कुओं में ब्लीचिंग पाउडर डलवाया। लेकिन, इस बस्ती पर अब तक उनका बस नहीं चला था। बातें तो वे लोग भी गौर से सुनते थे। साफ-सुथरा रहने की बात मान लेते थे। पर परिणाम हर बार वही ढाक के तीन पांत।

कुमकुम हर वक्त इसी उधेड़बुन में रहतीं कि ऐसा क्या किया जाए कि बस्ती वालों का जीवन स्तर सुधरे। नरक सा यह माहौल बदले। उन्होंने अपनी समस्या आरोग्य संच प्रशिछिका सिंधु दीदी को बताई। सिंधु दीदी ने जो रास्ता उन्हें बताया, उस पर चलना आसन नहीं था। ब्राह्मण परिवार की लड़की मुसहर बस्ती में जाकर नाली साफ करे, यह बात कोई कैसे बरदाश्त करेगा। लेकिन धुन की पक्की कुमकुम ने इस चुनौती को स्वीकार किया और जुट गई सफाई अभियान में। साथ में थीं सिंधु दीदी, आचायॆ लोकपति और कुछ साथी। तीन दिनों तक तो यह टोली नालियों और घरों की सफाई करती रही। चौथे दिन से बस्ती के लोग भी उनके साथ हो लिए। पांच दिन ये सिलसिला चला। छठे दिन तक तो आमूल-चूल परिवतॆन हो चुका था। रामपति ने कुमकुम दीदी के हाथ से झाड़ू छीनी। ...अब बस करिए दीदी, हमें अहसास होगया है। अब हम अपने घरों और बच्चों को साफ ऱखेंगे। बस्ती के शेष लोग सर झुकाए मौन समथॆन कर रहे थे। कुमकुम, सिंधु दीदी का उद्देश्य पूरा हो चुका था।

पांच दिनों की मेहनत रंग लाई। लोगों को प्रेरणा मिल चुकी थी। अगले ही दिन से बस्ती में घरों के आगे बने सुअर के बाड़े हट गए। बरसों बाद बस्ती के लोगों ने परचून की दुकान से साबुन-सफॆ खरीदा। महिलाओं नेबच्चों को रगड़-रगड़कर नहलाया। साफ-सुथरे कपड़े पहनाकर उन्हें एकलविद्यालय में पढ़ने भेजा। आचायॆ लोकपति की आंखें भी उन्हें देखकर खुशी से चमक उठी। पहली बार बस्ती के बच्चों ने विद्यालय में प्रवेश किया था। अबतक जैसे-तैसे जीवन बिता रहे इन मासूम बच्चों के जीवन में पढ़ाई और संस्कार का नया प्रभात आया था। अब वे भी अन्य बच्चों के साथ गायत्रीमंत्र का सस्वर जाप दुहरा रहे थे।

बदलाव की इस बयार से गांव के सामाजिक समीकरण भी बदल गए। मुसहर जाति के लोगों सेदूरी बनाए रखने वाले लोग अब उनके घर के ओसारे में बैठकर गप करते नजर आते। जवाहर और रामपति ग्राम समिति के सक्रिय सदस्य हैं। अब वो दिन भूलना चाहते हैं जब गांव के लोग इन्हें देखकर नाक-भौं सिकोड़ते थे। इतना ही ग्राम समिति के प्रयासों से नरेगा के तहत पूरे गांव (बस्ती समेत) में खरंजा बिछ गया है।
उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले में खलियारी गांव है।