बुधवार, 19 अगस्त 2009

केवल आम होने से आप सारे दोषों से बरी नहीं हैं

हम में से ज्यादातर यह कहानी सुन चुके होंगे। फिर भी अपनी बात शुरू करने से पहले, यहां इस कहानी का उल्लेख उचित होगा। कहानी कुछ इस तरह है। ..एक बच्चा बहुत ज्यादा गुड़ खाता था। मां उसे एक महात्मा जी के पास ले गई। समस्या जानकर महात्मा जी ने कहा, इस बच्चे को को पंद्रह दिन बाद लेकर आना। पंद्रह दिनों बाद मां उसे फिर वहां ले गई। महात्मा जी ने बच्चे से कहा, बेटे ज्यादा गुड़ खाना अच्छी बात नहीं है। इसे कम कर दो, बंद कर दो। मां को लगा इतनी सी बात कहने के लिए महात्मा जी ने पंद्रह दिन बाद क्यों बुलाया? उसने पूछा। महात्मा जी ने कहा, दरअसल पंद्रह दिनों पहले तक मैं खुद ज्यादा गुड़ खाता था। बच्चे वाली गलती जब मैं खुद कर रहा था, तो इसे कैसे और क्यूं समझाता। पहले तो मैंने माना कि हां ज्यादा गुड़ खाना गलत बात है। इससे बीमारी हो सकती है। और फिर इस गलत आदत को छोड़ा। इसके बाद मैंने बच्चे को समझाया। वरना, इस पर मेरी कही बात का असर नहीं होता। मेरे समझाने में भी अब जैसा दम नहीं होता। ऐसी स्थिति में मेरे समझाने का बच्चे पर कोई फकॆ भी नहीं पड़ता।
वाकई हम समाज से बुराइयों समूल नाश की इच्छा रखते हैं। तमाम बुराइयों के खिलाफ आवाज उठाना चाहते हैं। तो वैसी बुराइयों से हमें मुक्त होना होगा। भले ही वे बुराइयों छोटी क्यों न हो। एक कलकॆ अपने दफ्तर में रोज रिश्वत लेता हो और वह बोफोसॆ घोटाला, चारा घोटाला करने वालों को कोसे तो कोसते रहे किसे क्या फकॆ पड़ता है। हम कहते हैं, हमारे नेता, अधिकारी पाक-साफ हों, संसद, विधानसभाओं में जनता के काम की बातें हो, सरकारी दफ्तरों में काम हो। यह चाहना गलत नहीं है। लेकिन यह कायॆसंस्कृति विकसित करने में, जिसे आम आदमी कहते हैं, उसकी भी सक्रिय भूमिका है। वह केवल कहने और चाहने का अधिकारी नहीं है। व्यक्तिगत काम तो आम से लेकर खास सभी पूरी तनदेही से करते हैं। लेकिन जैसे ही काम व्यक्तिगत से सावॆजनिक होता है, काम के प्रति दिलचस्पी और गायब हो जाती है। इस रोग से केवल खास ही ग्रसित नहीं है। तो फिर ऊपर से क्यों सावॆजनिक कायॆ के प्रति काहिली के खिलाफ नीचे से ही मुहिम क्यों न शुरू हो?
अब देखिए न। गांव का एक आम आदमी वाडॆ पाषॆद बनता है। पाषॆद बनने से पहले वह बिल्कुल आम था। अपने घर, खेत में वह पूरी निष्ठा से काम करता रहा है। पाषॆद बनते ही सावॆजनिक कामों के प्रति उसकी अरूचि किसी भी गांव में दिख जाएगी। ..यह अरूचि एक आम आदमी पाषॆद बनते ही तो सीख नहीं जाता। यह गुर तो उस आम आदमी के अंदर पहले से ही होगा। ..तो सावॆजनिक कामों के प्रति अरूचि को दूर करने की मुहिम वहीं से क्यों न शुरू हो। वहीं से मतलब हर आम आदमी को अपने अंदर की इस अरूचि को बाहर निकलना होगा।
अक्सर हम दुखी होते हैं। संसद में हंगामे को लेकर। राजनीतिक दलों के धरना-प्रदशॆनों से होने वाली दिक्कतों को लेकर। हड़ताल को लेकर। आम आदमी के अलावा दुखी होने वालों में खास लोग भी शामिल होते हैं। लेकिन हम बात आम आदमी की ही करें। मुझे भी लगता है कि किसी भी ऐसे हंगामे, धरना, प्रदशॆन की निंदा की जानी चाहिए, जिससे ढेर सारे लोगों को परेशानी होती हो। एक समस्या के समाधान के लिए, ढेर सारे लोगों के लिए समस्या पैदा कर देना कहां की समझदारी है। लेकिन साहब यह समस्या पैदा करने में आम आदमी भी पीछे नहीं हैं। कहीं भी कोई दुघॆटना हो, सड़क जाम आम बात हैं। वे आम लोग ही होते हैं, जो किसी दुघॆटना के बाद तमाम वाहनों में तोड़फोड़ करते हैं। आग लगा देते हैं। हड़ताल करके काम ठप कर देने वाले कमॆचारी और बाकी लोग भी खुद को आम आदमी ही कहते हैं।
कहा जा सकता है कि बिना हंगामे के अधिकारी, नेता बात ही नहीं सुनते। दुघॆटना में मृतक के परिजन, घायल को बिना हंगामा किए मुआवजा ही नहीं मिलता। बिना हड़ताल किए वेतन ही नहीं बढ़ता। हो सकता है यह बात सही हो, फिर भी एक बार यह विचार करना होगा कि पहले नेताओं अधिकारियों को आम आदमी की बातें अनसुनी करने की आदत पड़ी, या फिर पहले आम जनता को हंगामा करने की। वैसे भी अपने फायदे के लिए काम बंद कर बाकी आम जनता से अन्याय करने वाला आम कमॆचारी ऐसी उम्मीद क्यों करता है कि सरकार उसकी बेहतरी के लिए चौबीस घंटे, बारह महीने ईमानदारी से काम करती रहे। उसके अधिकारी उसके प्रति न्यायपूणॆ बने रहें। ध्यान रखें, आप किसी से उम्मीदें लगाए बैठे हैं तो आपसे भी किसी को उम्मीद है। पहले आप तय करें कि हम किसी की उम्मीदों पर तुषारापात नहीं करेंगे।
कुछ साल पहले एक फिल्म देखी थी। उसमें कथित रूप से पाप करने वाली एक महिला को कुछ लोग पत्थर मार रहे होते हैं। हीरो आता है और कुछ बातों के बाद कहता है कि इस महिला को अब पहला पत्थर वही मारे जिसने कभी पाप न किया हो। किसी ने पत्थर नहीं मारा।
तो आप भी देख लीजिए, जो पत्थर आपके हाथ में है आप उसे चलाने लायक हैं भी या नहीं?