बुधवार, 17 दिसंबर 2008

पाकिस्तान भी तो यही कह रहा था

महाराष्ट्र के एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे शहीद हुए या मारे गए? यह बहस थमी तो नई बहस आगे बढ़ाई गई है। इस बहस की शुरुआत दरअसल पाकिस्तानी मीडिया ने की थी। वहां भी बहस आशंका के रूप में थी, करकरे को गोली मालेगांव धमाकों से जुड़े लोगों ने तो नहीं मारी? पाकिस्तानी मीडिया की आशंका पाक सरकार को स्वर देने की कवायद थी। अब कुछ दिनों बाद केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री एआर अंतुले भी यही बात कह रहे हैं। पूरा देश जिस केंद्र सरकार से पाकिस्तान पर हमले की मांग कर रहा है, उस सरकार का एक वरिष्ठ मंत्री उसी पाक के सुर में सुर मिला रहा है। इसे ही सियासत कहते हैं। यहां देश की भावनाएं नहीं देखी जाती, वोट देखा जाता है। क्या करेंगे, राजनीति को यूं ही तो दलदल नहीं कहा जाता।

अंतुले की एक और बात पर गौर करें। अंतुले कहते हैं पाकिस्तानी आतंकियों के पास एटीएस प्रमुख करकरे को मारने की कोई वजह नहीं थी। मतलब, मुंबई पर आतंकी हमलों में जितने लोगों ने जान गंवाई, उन्हें मारने की आतंकियों के पास वजह थी। (लगे हाथों अंतुले यह भी बता देते तो ज्यादा अच्छा रहता कि वह वजह क्या है)। अंतुले का यह बयान कहीं न कहीं आतंकियों की कारॆवाई को एक आधार भी देता है। हमारे केंद्रीय मंत्री का बयान हमें बताता है कि आतंकी बेवजह किसी को नहीं मारते। पाक परस्त आतंकी अरसे से भारत में खूनखराबा कर रहे हैं। हम मानते हों या नहीं, मंत्री जी मानते हैं कि इसकी वजह है। और वो मानते हैं, तो आपको सुनना-पढ़ना होगा। क्या करेंगे, अभिव्यक्ति की आजादी तो उनके लिए भी है।

हो सकता है, कुछ लोग अंतुले की आशंका से सहमत हों। तब भी इस बयान को गैर-जिम्मेदाराना ही माना जाएगा। अगर इस तरह की कोई आशंका है, तो पहले उसकी जांच होनी चाहिए। जांच में यह बात स्थापित होती, तब कही जाती। जांच किए जाने की बात अंतुले भी कह रहे हैं। अंतुले केंद्र के वरिष्ठ मंत्री है। सरकार के स्तर पर अपनी बात रखते। जांच करवाते। तब तक इस पर मुंह खोलने से परहेज करते। लेकिन इतनी शांति से उनका मकसद कहां पूरा होता। पता नहीं, अब भी उनका मकसद पूरा हो पाएगा या नहीं। हो सकता है लेने के देने पड़ जाएं। दरअसल भारतीय राजनीति के कुछ पुराने योद्धा देश की जनता को वतॆमान समय के हिसाब से देख ही नहीं पाते। ये लोग देश की जनता को उसी वक्त के हिसाब से देखते हैं, जब इन्हें विस्मृति दोष नहीं हुआ था। उन्हें याद नहीं कि जनता काफी समझदार हो चुकी है। राजस्थान, दिल्ली, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ के चुनावी नतीजों ने भी यही बताया है। किसी राज्य की जनता ने बयान के आधार पर वोट नहीं दिए। वोट काम पर डाले गए।