बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

भ्रष्टाचार से ही लालू बने थे सीएम

पटना में २२ फरवरी को लालू प्रसाद यादव ने रविदासों के समक्ष भले भोलेपन से यह सवाल किया हो कि आखिर उनसे क्या गलती हो गयी जो बिहार की सत्ता से उन्हें बेदखल कर दिया गया, पर उनका यह सवाल है उत्तर तलाशने के लायक। यह अलग मसला है कि वे आज केन्द्र में उसी कांग्रेस की छत्रछाया में रेलमंत्री बनने का गौरव हासिल कर रहे हैं, जिसे कोस-कोस कर वे राजनीति में जवान हुए, पर कभी जेपी का अनुनायी कहलाकर गर्व से सीना तानने वाले इस शख्स की बिहार के मुख्यमंत्री पद पर ताजपोशी भी भ्रष्ट आचरण के तहत ही हुई थी।
बात १९९० की है। वीपी सिंह का जमाना था। देश में गैर कांग्रेसवाद की लहर चल रही थी। तब न तो मंडल कमीशन आया था और न ही लालू की मुरलीधरन छवि ही लोगों के नूरेनजर थी। विधान सभा चुनाव में जनता दल बड़ी पार्टी के रूप में सामने आया था। मात्र गैर कांग्रेसवाद को लेकर कांग्रेस का तख्ता पलट दिया गया था, उसे जनता बहुमत से अल्पमत में ले आयी थी। बिहार में ही नहीं, केन्द्र में भी। गैर कांग्रेसवाद के गर्भ से निकला था जनता दल और उस वक्त भी उसके पास स्पष्ट बहुमत नहीं था कि अकेले वह सत्ता चला सके। तालमेल हुआ। झामुमो, भाजपा, माकपा, भाकपा और जद ने समझौता किया और कांग्रेस को सत्ता में आने रोका गया। बिहार में तो नेतृत्व संकट की भीषण स्थिति पैदा हो गयी थी। मुख्यमंत्री की कुर्सी पाने के लिए जनता दल में उठापटक शुरू हो गयी थी। उस वक्त राम सुंदर दास मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार थे। रमई राम, रघुनाथ झा को भी इस दौड़ में शामिल किया जा रहा था। यहां तक कि गैर कांग्रेसवाद का झंडा थामे अगली पांत के नेता युवा तुर्क चंद्रशेखर भी यही चाह रहे थे कि रघुनाथ झा या राम सुंदर दास को ही मुख्यमंत्री बना दिया जाय। मगर, उस वक्त की राजनीति और जनता दल में मजबूत स्थिति रखने वाले देवीलाल ने लालू यादव के नाम का प्रस्ताव कर दिया। और जैसे कालांतर में एचडी देवगौड़ा या इंद्र कुमार गुजराल रातोरात प्रधानमंत्री बने, वैसे ही लालू यादव मुख्यमंत्री बन गये। जनता ने उन्हें नहीं चुना था और जिन्होंने उन्हें चुना था, ऐसा करने का उनके पास कोई अधिकार नहीं था। लालू प्रसाद यादव तो उस वक्त विधायक भी नहीं थे। मुख्यमंत्री की गद्दी संभालने के बाद उन्होंने चुनाव लड़ा और संवैधानिक रूप से मुख्यमंत्री पद के लायक बने। तो यह था लालू के बिहार की गद्दी पर काबिज होने का सच। सामाजिक समरसता कायम करने वाली पार्टी का पहला मुख्यमंत्री ही अलोकतांत्रिक तौर-तरीके और गैर जनमत से चुना गया। इस प्रक्रिया को भ्रष्टाचार की श्रृंखला में रखा जाय तो लालू के मुख्यमंत्री पद पर प्रतिष्ठित किया जाना भी एक भ्रष्ट प्रक्रिया ही थी, जो खुलेआम लोकतांत्रिक प्रणाली की धज्जियां उड़ा रही थी। फिर भ्रष्टाचार के माध्यम से स्थापित मुख्यमंत्री न्याय औऱ नैतिकता की बात किस मुंह से करता? और इसी का परिणाम हुआ कि पूरे सूबे में अराजकता की स्थिति पैदा होती चली गयी। जनता दल के कार्यकर्ता खुलेआम आपराधिक घटनाओं को अंजाम देने लगे। हत्या की राजनीति मुखर हो गयी। संतरी से मंत्री तक जातीय समीकरण के तहत बहाल किये जाने लगे। गुण और गुणवत्ता को नजरअंदाज किया जाने लगा। लालू रोज भड़काऊ भाषण देने लगे। जनता के नाम पर जनतंत्र का जितना मजाक लालू ने उड़ाया, इसका आकलन करना या उसे विश्लेषित करना आने वाली पीढ़ी को गलत रास्ते का पाठ पढ़ाने जैसा ही है, पर यह सच है कि एशिया के मानचित्र पर सिंधू घाटी के बाद सबसे पहले सभ्यता का विकास करने, अपनी भौतिक संपदा के साथ-साथ वैचारिक अमृत से मानवता को सींचने और नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाला बिहार क्रूरतम हिंसा, जघन्यतम अपराध और महाघोटालों की विषबेलियों से इस कदर जकड़ता गया कि उसकी चिरपरिचित अस्मिता पर ही संकट के बादल मंडराने लगे। जिस बिहार के बुद्ध, महावीर, चाणक्य, चंद्रगुप्त मौर्य, अशोक, शेरशाह, सूफी-संतों व भक्त कवियों, सामाजिक क्रांतिकारियों और राजनैतिक हस्तियों ने समय-समय पर देश की संस्कृति में नये अध्याय जोड़े, वही बिहार लालू के राज में जंगल राज का पर्याय बन गया था।

फिलहाल इतना ही। लालू प्रसाद यादव के सवाल के बहाने जवाबों की तलाश में इतिहास को खंगालने का सिलसिला अभी जारी रहेगा। अगली पोस्ट में पढ़िए-इंसानी लाशों से पटता जा रहा था बिहार।

लालू यादव के सवाल के बहाने

लालू प्रसाद यादव ने पिछले दिनों पटना में एक समारोह में जनता से बड़े ही भावुक अंदाज में पूछा-मेरा कुसूर क्या था कि मुझे सत्ता से बेदखल कर दिया गया। लालू यादव ने उन वजहों का भी जिक्र किया, जिनके चलते उन्हें सत्ता से बेदखल नहीं किया जाना चाहिए था। क्या लालू यादव वाकई अपने सवाल का जवाब चाहते हैं? अगर हां तो उन्हें कुछ और लोगों के सामने अपने सवाल को रखना चाहिए।

उन आम लोगों से भी पूछा जाना चाहिए, जिन्होंने लालू और राबड़ी देवी के कायॆकाल में मान लिया था कि अगर बिहार में रहना है तो अपने दम पर, अपने बाहुबल पर भरोसा करके ही रहा जा सकता है। आगे बढ़ना है तो सरकारी मशीनरी से किसी मदद की उम्मीद न करें। अपने संसाधनों से विकास कर सकते हों तो करें।

उनसे भी लालू मुखातिब हों, जो उन परिस्थितियों में वहां रहने की हिम्मत नहीं जुटा सके और पलायन को मजबूर हुए। हालत यह हो गई कि महाराष्ट्र, पंजाब, पश्चिम बंगाल से लेकर देश के लगभग सभी हिस्सों में बिहार के लोगों की भीड़ सी हो गई। मजबूरी में बिहार छोड़ने वाले लोग कहीं दुरदुराए जाते हैं तो कहीं पीटे जाते हैं। इनमें से अधिकांश लोग वही हैं, जिनके उत्थान और आत्मसम्मान को बहाल करने की बात कहते लालू यादव अघाते नहीं। उत्थान होता आत्मसम्मान बढ़ता या बहाल होता तो क्या वे अपना देस छोड़ने को मजबूर होते। इनके, इनके परिवार वालों के पास भी तो वोट का अधिकार है, लालू यादव इनसे भी क्यों नहीं पूछते कि किन वजहों से उनका वह सिंहासन छीन लिया गया, जिस पर वे बीस साल तक बैठने का दावा करते थे।

सवाल तो उन उद्योगपतियों से भी पूछा जाना चाहिए जो रंगदारी, अपहरण की वारदातों और गुंडागरदी से त्रस्त होकर बिहार छोड़कर भाग जाने को मजबूर हुए। सत्ता में बने रहने के लिए केवल भावुक सवाल और नौटंकी की जरूरत नहीं होती। नागरिकों की बेहतरी और उनकी हिफाजत के उपायों की भी जरूरत होती है। जनता की हिफाजत की स्थिति यह थी कि लोग सवाल पूछने लगे थे कि अगला नरसंहार कब और कहां होगा? ऐसे सवाल पूछने वालों को जवाब देने का हक नहीं था क्या? नरसंहार को छोड़ भी दें तो कानून-व्यवस्था की हालत यह थी कि लोग शाम होते ही अपने घरों में दुबक जाने को मजबूर होते थे। राजधानी पटना तक में शाम होते असामाजिक तत्व ही सड़कों पर बचे रह जाते थे। महिलाएं इज्जत का जोखिम उठाकर ही दिन में भी घर से निकलती थीं। क्या-क्या गिनवाया जाए? लालू यादव को याद हो या न हो, जनता को तो अब भी याद होगा ही। आखिर भुगता तो उन्होंने ही है।

मंडल कमीशन लागू होने के बाद बिहार में आग लगी तो उसे बुझाने की जरूरत थी। लेकिन लालू यादव ने यह कहकर उस आग में घी ही तो डाल दिया कि ..भूराबाल (भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण, लाला-कायस्थ) साफ करो। लालू यादव बाद में भले ही इस पर लीपापोती करते रहे हों लेकिन उनके इस महान आह्वान का खामियाजा केवल भूराबाल ने ही नहीं, पूरे प्रदेश ने भुगता।

इनके साथ उनसे भी तो अपना सवाल पूछिए रेलमंत्री जी जिन्हें आपने चौदह-पंद्रह साल तक अपनी नौटंकी में उलझाए रखा। चरवाहा विद्यालय खोलकर अपने आपको विकास पुरुष कहने और कहलवाने से विकास नहीं होता। होता तो आज भी चरवाहा विद्यालय में पढ़ने वाले आते होते। छात्रों के लिए सिसक-सिसक कर मर नहीं जाते चरवाहा विद्यालय। सिंदुर-टिकुली बांटने से कौन सा विकास होता है? सिवाय अखबारों में बांटने वाले की तस्वीर छपने के और कौन सा भला हुआ उस कवायद का, कोई तो बताए। हप्प-हप्प करके सवालों को खा जाने की उनकी अदा पर मर मिटने वाले भी कब तक वोट देते?

लालू यादव के सवाल का जवाब तलाशती चरचा जारी रहेगी। अगली किस्तों में श्री कौशल शुक्ला कुछ तथ्यों के साथ आपके सामने होंगे।