मंगलवार, 24 फ़रवरी 2009

गलतियां करें आप, खामियाजा भुगते देश?

चुनाव के बहाने देश में चल रही राजनैतिक चोंचलेबाजियों, खासकर रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव और इस्पात-उर्वरक मंत्री रामविलास पासवान की मतलबी गलबहियों पर सोच रहा था, पर चिंतन में आ गये पूज्य बापू गांधी जी और जेहन में आ गया उनकी ओर से कभी दिया गया हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई का नारा। तब गुलाम देश में ये दोनों कौमें आपस में एक-दूसरे के खून की प्यासी हो रही थीं। देखने की बात यह थी कि देश में तब सिर्फ हिन्दू-मुस्लिम ही नहीं थे, सिख भी थे, ईसाई भी थे, बुद्ध-जैन सम्प्रदाय के साथ दर्जनों कौमें अलग-अलग वजूद में थीं, पर गांधी जी ने हिंसा की घटनाओं से आहत होकर नारा दे दिया-हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई। गांधी जी एक बड़ी शख्सीयत थे। उनसे बड़ा देश में कोई था ही नहीं। मगर, उनसे यह नारा देकर एक छोटी गलती जो हो गयी, उसका खामियाजा आज तक तक देश भुगत रहा है। इसके खत्म होने की कोई सूरत नहीं दिख रही है। उनके नारे का सीधा सा मतलब था, दोनों कौमों में भाईचारा कायम हो जाये, पर हुआ क्या? इन दोनों जातियों को बड़ा बल मिल गया। उन्हें लगा कि भले देश में दर्जनों जातियां हों, पर उनकी तो कोई बात नहीं। गांधी जी ने कह दिया तो इसका मतलब अब तो सिर्फ वे ही हैं, बाकी गौण। और लोगों ने देखा कि तबसे इन दौ कौमों में भेद मजबूत होता चला गया, एक दूसरे पर विजय पाने का संघर्ष तेज होता चला गया। बड़े लोगों की छोटी गलतियां भी बड़ा असर दिखाती हैं, क्योंकि उनका पटल व्यापक होता है, वे सुनी दूर तक जाती हैं, समझी देर तक जाती हैं।
अब आयें लालू प्रसाद यादव और राम विलास पासवान के संदर्भों पर। ग्रेट इंडियन तमाशे यानी महासंग्राम यानी लोक सभा चुनाव के इन दोनों मोहरों में सीट बंटवारे को लेकर आजकल रस्साकशी चल रही है। यूपीए के इन दो महत्वपूर्ण सिपहसालारों में मान-मनौअल के पैंतरे चल रहे हैं। बिहार में सोलह बनाम चालीस का पासवान ने जो पासा फेंका है, वह लालू को कबूल नहीं, मगर वे यह भी नहीं चाहते कि दो की लड़ाई का फायदा तीसरे को यानी जदयू-भाजपा नीत राजग को मिल जाये। यही कारण था कि पिछले दिनों लालू जा पहुंचे पासवान के घर। कुछ देर रुके औऱ फिर निकल पड़े अपनी राह। क्या बात हुई यह तो वे ही जानें, पर हवा उड़ी कि राजनैतिक बिसात पर दांव खेलने और जीतने की कला में माहिर तथा खुद को किंग मेकर कहने वाले मैनेजमेंट गुरु लालू ने पका ली अपनी खिचड़ी, मना लिया रुठ जाने वाले पासवान को। पर, तमाशा तो आखिर तमाशा है। दूसरे ही दिन पासवान के पलटवार से पता चला कि नहीं, बात जमी नहीं, बल्कि वहीं की वहीं अटकी हुई है। पासवान की बातों में इशारा साफ था कि गेंद लालू के पाले में ही है, उन्हें ही अभी मुद्दों को मोड़ देना है। संघर्ष तेज, मशक्कत जारी, निगाहों में बढ़ता इंतजार। फिर मैनेजमेंट गुरु का नारा आया-इस बार दलित प्रधानमंत्री चाहिए। सफलतम राजनीतिज्ञ का बेहतरीन दांव। दलितों को रिझाने के साथ उन्हें पासवान से भटकाने का बेजोड़ हथियार।
पर, लालू के दलित प्रेम का यही नारा देश के लिए हिन्दू-मुसलमान भाई-भाई के नारे की तरह खतरनाक है। इक्कीसवीं सदी के इस दौर में और आर्थिक मंदी से जूझ रहे देश में जहां हर बड़ा-छोटा, अमीर-गरीब अपनी रोजी-रोटी की चिंता कर रहा है, वहां यह नारा खतरनाक है। खून-खराबे को आमंत्रित करने वाला, एक बड़ा वर्ग भेद कायम करने वाला नारा है यह। लोगों को याद होगा, जब वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने थे तो उनके दिल में भी पिछड़ी और दलित जाति के लोगों के प्रति सहानुभूति उपजी थी। उन्होंने वर्षों तक पेंडिंग पड़े मंडल आयोग की सिफारिशें एक झटके में लागू कर दी थीं। तब वीपी सिंह के सामने देश के नौजवान धू-धू कर जलने लगे थे और जलने लगा था पूरा देश। जिन गांवों में लोग जात-पांत भूल कर एक दूसरे के दुख-सुख में बिना भेदभाव के शामिल हो रहे थे, वहां लकीरें खिंच गयीं और बिना वितंडा शुरू हो गयी खूनी भिड़ंत। बसें-ट्रेनें रोककर और जाति पूछ-पूछ कर लोगों को मारा-काटा जाने लगा। मंडल कमीशन से शुरू हुआ वर्ग संघर्ष आज तक कायम है, रोज-ब-रोज गहरा रहा है। जिस आरक्षण का प्रावधान देश में दस वर्षों के लिए ही किया गया था, उस पर अब राजनीति जड़े जमा चुकी हैं औऱ इसके खत्म होने के आसार खत्म हो गये हैं।
सवाल यह है कि अपनी जीत और अपनी पार्टी के वजूद को बचाने के लिए सब कुछ करने वाले लालू प्रसाद यादव को क्या हक है कि वे आम जनता को बरगलाते हुए समस्याओं से उलझे देश में एक नया वितंडा खड़ा करें? वह भी तब, जबकि अभी यही साबित होना है कि दलितों का मसीहा कौन है? और दलित प्रधानमंत्री की जिद ही क्यों? सवाल यह है कि दलितों के नाम पर पूरे देश की उपेक्षा क्या जायज है? यहां सवाल यह भी है कि साठ साला आजादी के बाद भी यदि देश में कोई है जो दलित कहे जाने के लायक है तो दोष किसका है? क्या लालू और पासवान जैसे नेताओं का कोई दोष नहीं, जो खुद तो वर्षों से सत्ता पर काबिज होकर मजा लूट रहे हैं और दलित के नाम पर भी खुद को ही आगे पेश कर दे रहे हैं? क्या वे भी दलित ही हैं? और खुद के फायदे के लिए दलित प्रधानमंत्री का नारा देकर क्या वे देश को फिर एक लंबे और अंतहीन खूनी संघर्ष में झोंकने की जुर्रत नहीं कर रहे? सवाल यह भी है कि वर्ग भेद को जिंदा करने वाले वाले और उसे मजबूती प्रदान करने वाले ऐसे नेता को आखिर देश कब तक झेलेगा? उनकी गलतियों का खामियाजा आखिर देश क्यों भुगते? फिलहाल इतना ही, ग्रेट इंडियन तमाशे को लेकर बहस लायक मुद्दों पर अभी चर्चा जारी रहेगी। धन्यवाद।