मंगलवार, 19 मई 2009

सब कुछ गंवा के होश में आये तो क्या हुआ

बदली परिस्थितियों में लालू-रामविलास के जो सुर बदले हैं और जिस तरह से बिना मांगे केन्द्र में कांग्रेस को समर्थन देने का उन्होंने जो राग अलापना शुरू कर दिया है, उसको देखकर तो यही कहा जा सकता है- सबकुछ गंवाकर होश में आये तो क्या हुआ। वैसे बिहार के आम नागरिक की भी यही आवाज है। वह सोलह मई का दिन था। शाम होने से काफी पहले लालू-रामविलास को पता चल गया था कि उनकी बहुचर्चित गलबहियां व मतलबी कंपनी को बिहार के लोगों ने खारिज कर दिया और एक तरह से सूपड़ा साफ कर दिया है तो पलक झपकते उनकी जुबां पर सदा चढ़ी रहने वाली तुर्शी गायब हो गयी। सन्नाटा मच गया। अब क्या का गहराता सवाल उन्हें न तो कुछ सोचने दे रहा है, न बोलने दे रहा है? निगाहें लाचार और जुबां बेबस हो चुकी है। आव देखा न ताव, लगे बोलने- कांग्रेस से अलग होकर चुनाव लड़ना भूल थी।
सवाल यह नहीं है कि उन्होंने क्या किया और उनके किये का उन्हें जो फल मिला वह अच्छा हुआ या खराब? बल्कि, सवाल दूसरा पैदा हो गया है। यह उनके बदले सुर से भी प्रतिध्वनित हो रहा है। लालू कहा करते थे कि हम मूंज के झूर (ऐसी झाड़ी, जिसके पत्ते धारदार होते हैं) हैं, जो हमें उखाड़ने आयेगा उसका गत्तर-गत्तर (अंग-अंग) कटा (कट) जायेगा। उसी दौरान बाद में नीतीश बोलते नजर आये थे कि हम इस मूंज को काटने या उखाड़ने नहीं जायेंगे, बल्कि इसकी जड़ में मट्ठा झोंक देंगे और पूरे झूर को जला देंगे। गुजरते समय के साथ जब राजनीति बदली और सूबे की सत्ता बदली तो जिस तरह से नीतीश ने विकास और दलित-महादलित कार्ड पर काम करना शुरू किया और अबकी जो चुनाव परिणाम आये, उससे तो यही लगता है कि मूंज के झूर में मट्ठा झोंका जा चुका है।
जब मतलबी गलबहियां ने कांग्रेस को दुलत्ती मारी तो कांग्रेस ने भी हौसला बुलंद करते लड़ाई के लिए ताल ठोंक दी। वोटरों को विकल्प मिला और इसी दौरान मुस्लिम जनाधार पाला बदलता दिखा। गलबहियां गठबंधन के सिरमौर लालू ने आनन-फानन में बयान का मटका फोड़ा कि बाबरी मस्जिद के ढहाने में कांग्रेस का ही हाथ था। मगर, यह भी काम न आया। जो जनाधार दरक चुका था, वह दोबारा पाले में नहीं आया। काका हाथरसी की कविता याद आती है- जो उड़ गयी जवानी, उसको बुलायें कैसे, जो जुड़ गया बुढ़ापा उसको छुड़ायें कैसे ....? सवाल यह हो गया है कि २००५ के विधानसभा चुनाव से जनाधार टूटने का जो सिलसिला शुरू हुआ और जो इस बार २००९ के आम चुनाव में परवान पकड़ गया, उसे आने वाले दिनों में कैसे काबू किया जा सकेगा? क्या यह संभव हो पायेगा, वह भी तब, जब देश में मजबूत इरादे करवट ले चुके हों, अपराधी तत्व सिरे से खारिज किये जा चुके हों और नये तेवर में सरकार बनाने का कांग्रेसी मिजाज जगजाहिर हो चुका हो?
रामविलास २००५ के विधानसभा चुनाव में पूरे सूबे में लालू विरोध में मोर्चा खोले हुए थे। कहते चल रहे थे कि जहर खा लूंगा, मगर लालू का साथ नहीं दूंगा। मगर, वे आम चुनाव में लालू के कसीदे काढ़ने लगे, उनकी मोहब्बत के तराने गाने लगे। यानी जो भीतर था, वह खुलकर दिखाने लगे। समझा था, भोले-भाले लोगों का क्या है, जो बोलूंगा, मानेंगे। अब लोगों को क्या कीजिएगा? जो कभी रिकार्ड वोटों से जीता कर भेजते थे, उसी ने मुंह की पलटी खिला दी। सूपड़ा साफ। सूबे में लोजपा को एक भी सीट नहीं। अब कांग्रेस को क्या बार्गेन कर पाइएगा, चार के कुनबे में सिमटे लालू ही बात सुन लें तो बड़ी बात होगी। उस पर से हद यह कि रामविलास जी कांग्रेस, यूपीए के साथ-साथ लालू चालीसा का भी अब तक पाठ दोहरा रहे हैं। अभी उनके इस बयान पर कि अगला चुनाव भी राजद के साथ ही लड़ेंगे, चारों ओर हास्य का ही माहौल बना हुआ है। कई लोगों ने मजाक में ही यह कहना शुरू कर दिया है कि यह बयान देने से पहले लालू से पूछा था क्या? लालू आपके साथ लड़ेंगे तब न?
दरअसल, केन्द्र में सरकार बनाने का दावा करने वालों की कलई खुल चुकी है, रंग उतर चुका है। कैबिनेट की बैठक में भी जाने की हिम्मत गंवा बैठे ये बड़बोले और हमेशा मतलब साधने वाले राजनेता अब बोलते चल रहे हैं कि बेइज्जती हो रही है। आखिर आपने किसकी इज्जत की, जिससे प्रत्युत्तर में उससे इज्जत पाने की बात कर रहे हैं। अपने अंजाम तक तो देखने की आप हिम्मत नहीं दिखा रहे हैं और कर रहे हैं इज्जत की बात। अंजाम क्या है? बिहार के एक आम नागरिक की बात सुनिये, वह कहता है- बस, हो गया। सूबे से लालू-रामविलास की राजनीति अब खत्म। पूछा-क्यों, कैसे? नागरिक का कहना था - युवा वोटरों वाले देश में, विकास की लहर वाले प्रदेश में क्या है इनके पास बोलने लायक जो आगे बोलेंगे, क्या है इनके पास करने लायक, जो आगे करेंगे? जिस भूल की वे बात कर रहे हैं, वह भूल बुरा अंजाम प्राप्त करने के बाद समझ में आ रही है? नागरिक का साफ-साफ कहना था- सब कुछ गंवा कर होश में आये तो क्या हुआ?