सोमवार, 31 अगस्त 2009

कोई तो मानक हो ब्लाग लेखन का-तीन

सुविधा है तो कुछ भी लिखेंगे?

लगता है बात गलत दिशा में मुड़ गई है। ऐसे में सीधी बात करें तो बेहतर। पिछले दो पोस्ट पर जो टिप्पणियां आईं, उनमें से कुछ का मतलब यह है कि ब्लागजगत में मानक की बात करना बेमानी है। ऐसा क्यों?क्या सिफॆ इसलिए कि हमारे पास यह सुविधा है कि हम कुछ भी लिखें प्रकाशित होगी।
हम अक्सर इस बात को लेकर चिंता जताते हैं कि राजनीति में आने के लिए कोई मानक तय नहीं है। हालत यह है कि हम भ्रष्टाचार, अनाचार और सियासी गुंडा तत्वों को कोसने के अलावा कुछ नहीं कर पाते। हमारे नीति निमाॆताओं ने सियासत में सबके लिए समान अवसर देने के लिए कोई मानक नहीं तय किया था। जाहिर है, कोई मानक न होने को तब विशेषता ही माना गया होगा।

मतलब रोक-टोक न होने का दुरुपयोग हर जगह धड़ल्ले से होता है। ऐसे में कुछ नैतिक जिम्मेदारियां ब्लाग लेखकों के लिए भी तय की जाए तो बेहतर हो।

आखिर क्यों हम सेक्स और हिंसा से भरपूर, दोहरे अथॆ वाले फूहड़ संवादों वाली फिल्मों की आलोचना करते हैं। कई बार इसके लिए तकॆ दिया जाता है कि फिल्में समाज का आईना है। समाज में जो कुछ हो रहा है, वही दिखाया जा रहा है। हम इस तकॆ को नहीं मानते। कहते हैं, यह बहानेबाजी है। न ही हम इस तकॆ को मानते हैं कि दशॆक जो देखना चाहता है, हम वही तो दिखाते हैं।

हमें लगता है, ठीक वैसे ही हमें यह तकॆ भी नहीं मानना चाहिए कि कुछ भी लिखा जाए, ब्लाग पढने वाले उसे पढ़ते हैं, इसलिए सबकुछ जायज है। फिल्मों से ही समझें, पैसा लगाने वाला जैसी फिल्म चाहे दिखा सकता है क्या। उससे लिए कुछ बंदिशें हैं। नैतिकता का तकाजा है। सेंसर बोडॆ है। फिल्म बनाने वालों का यह तकॆ भी नहीं माना जाता कि जिसे फिल्म देखना है देखे, जिसे नहीं देखना नहीं देखे। ब्लागों पर पढ़ाने, दिखाने का पैसा नहीं लगता, इसका मतलब यह तो नहीं कि कुछ भी लिखा जाए। हमें लगता है कि जैसी नैतिकता हम फिल्म बनाने वालों के पास देखना चाहते हैं, जैसी नैतिकता की हम सड़क पर चलने वाले एक आदमी से उम्मीद करते हैं, ठीक वैसी ही नैतिकता की उम्मीद ब्लाग लेखन करने वालों से क्यों नहीं होनी चाहिए।

क्या ऐसा नहीं हो सकता कि....
-ब्लाग पर लिखने की पहली शतॆ भाषा की शुद्धता हो।
-अश्लीलता और हिंसा से परहेज किया जाए।
-हम एक दूसरे पर व्यक्तिगत हमले वाले लेख न लिखे जाएं।
-एक दूसरे की छीछालेदार की कोशिश में न लगे रहें।
(आखिर इससे कौन सा भला और किसका मनोरंजन होता है, सिवाय लिखने वालों के)
-तू मुझे मुल्ला कहे, मैं तुझे काजी कहूं की परंपरा बंद हो।
-बच्चा पैदा होने से लेकर श्राद्ध तक वाह-वाह बंद हो।
-एक दूसरे को ईमानदारी से पढ़ने और राय देने की कोशिश हो।
(एक बार फिर से, ब्लागों पर बात भय, भूख और भ्रष्टाचार से लड़ने की भी होनी चाहिए)
बातें अभी और हैं। बहस जारी रहेगी। आपके विचार आमंत्रित हैं।
पुरुषोत्तम, कौशल

कोई तो मानक हो ब्लाग लेखन का - 2

ब्लाग पर बकवास, पैसा खर्च होता है भई !
ब्लाग पर बकवास लिखने से पहले ब्लाग लिखने वालों को यह जरूर सोचना चाहिए कि जो कोई भी उन्हें पढ़ रहा है, वह अपने पाकेट का पैसा खर्च कर पढ़ रहा है। नेट का लिंक मुफ्त में तो नहीं मिलता? और आज के उपभोक्ता युग में क्या किसी को यह राइट बनता है कि अपने उपभोक्ता को झांसा दे, उसे फ्लर्ट करे या निरर्थक बातों में उसका समय जाया करे? मैंने पिछली पोस्ट में ही कहा था कि अभी लिखे जा रहे सत्तर फीसदी ब्लाग को पढ़ने से यह पता ही नहीं चलता कि आखिर वे क्या लिख रहे हैं और किसके लिए लिख रहे हैं। कई ब्लाग तो ऐसे हैं, जिन्हें पढ़कर बच्चा भी कह देगा कि लेखक अपने लिए भी नहीं लिख रहा है। मुझे तो ऐसे ब्लागों को देखने से यही लगा कि लेखक आखिर कैसे किसी को यह बता पाएगा कि वैसा वकवास उसी ने लिखा है। मगर, एक कहावत पढ़ी थी। एक दारूबाज पति अपनी पत्नी से गाहेबगाहे पीने के लिए पैसे झटके करता था और इसके लिए वह रोज नये-नये बहाने किया करता था। एक दिन वह घर गया और लगा पैसे मांगने। पत्नी के पूछने पर उसने बताया कि आज एक सट्टा लगा है। लोग कहते हैं बकरी की चार टांगें होती हैं। मैंने कहा है कि पांच होती हैं। मैं जीतूंगा। पैसे लाओ, डबल मुनाफे की बात है। पत्नी बोली, बेवकूफ आदमी, बकरी की चार टांगें ही होती हैं। पति बोला - मैं मानूंगा ही नहीं। पत्नी बोली - लोग बकरी को सामने लाकर टांगें गिनवा देंगे। पति बोला - गिनवाते रहें, मैं मानूंगा ही नहीं। पत्नी ने माथा पीट लिया। अब ब्लागों पर बकवास पढ़ने वाले क्या ऐसे ही अपना माथा पीटें? या कोई है इसका निदान?
(फिलहाल इतना ही। बहस जारी रहेगी। इस ब्लाग को पढ़ने वाला हर व्यक्ति इस बहस में भाग लेने के लिए आमंत्रित है।)
कौशल, पुरुषोत्तम।