सोमवार, 17 अगस्त 2009

सिफॆ भाषण देने से काम नहीं चलेगा

मेरी पिछली बातों (खुद को भी तो बदलिए) का संदभॆ लेते हुए ब्रजेश, चंद्रा एक बात स्पष्ट कर लें कि नेता, अधिकारी या व्यापारी कोई आसमान से नहीं आते। आम लोगों यानी पब्लिक के बीच से ही आते हैं। पिछली बातों से अगर यह भी साफ नहीं हो पाया कि देश, समाज और व्यवस्था सुधरे, इसके लिए क्या करें तो मैं कोशिश करता हूं कि और सहज शब्दों में बात करूं। आपके जैसा, मेरे जैसा, उनके जैसा हर आदमी सुधर जाए। भ्रष्टाचार, अनाचार और विध्वंस से तौबा कर ले तो पूरा समाज सुधरेगा, व्यवस्था सुधरेगी। बुराइयों और इसके लिए जिम्मेदार लोगों को सिफॆ कोसने की जगह बुराइयों को खत्म करने का प्रयास हम खुद करें, तो ही स्थिति सुधरेगी।
यह बात बहुत बार कही गई है। फिर भी कहता हूं। गली में कुछ ईंटें पड़ी हैं। एक ईंट से आपको ठोकर लगती है। आप गिर जाते हैं। आप गाली देते हैं। पता नहीं किसने ईंटें रास्ते पर फेंक दी। इतना भी शऊर नहीं है। यह कहकर आगे बढ़ जाते हैं। आपके पीछे आने वाले और भी लोग ईंट से टकराते हैं। आपका ही अनुसरण करते हैं। आगे बढ़ जाते हैं। समस्या जस की तस है। कोसने, गाली देने के बावजूद।...तो इतना तय है कि कोसने, गलियाने से समस्या दूर नहीं होती। अब कोई और व्यक्ति आता है। वह ईंटें उठाकर तरतीब से किनारे रख देता है। उसके ऐसा करते ही यह तय हो गया कि अब और आने वाले लोग उन ईंटों से नहीं टकराएंगे। मतलब समस्या दूर करने के लिए थोड़ा वक्त देना होगा। थोड़ी मेहनत करनी होगी। भाषण देने से अलग। साथ ही ..हमें क्या मतलब का भाव त्यागना होगा।
मान लें आपको किसी सरकारी दफ्तर में काम है। वक्त लग रहा है। आप समथॆ हैं। दफ्तर के कलकॆ को कुछ पैसे देते हैं। आपका काम हो जाता है। इसके बाद भी देश, समाज में फैले भ्रष्टाचार पर आप लंबा-चौड़ा व्याख्यान देंगे। अधिकारियों, नेताओं को इसके लिए जिम्मेदार ठहराएंगे। मन नहीं भरा तो देश की आजादी को बेमानी ठहराएंगे। ...क्या कहने की जरूरत है कि सवॆत्र व्याप्त भ्रष्टाचार के लिए आप या कोई और घूस देकर काम करवाने वाला भी जिम्मेदार है? सोचें जरा, हर आदमी रिश्वत देना बंद कर दे तो भी क्या रिश्वतखोरी जारी रहेगी? क्या सरकारी बाबू, अधिकारी काम करना ही बंद कर देंगे? रिश्वत देना बंद कर दिया जाए तो भी काम होंगे। कुछ दिनों तक का संक्रमण काल हो सकता है। निश्चित रूप से यहां ऐसा सोचना ठीक नहीं होगा कि केवल मेरे घूस नहीं देने से क्या होगा। वो गाना याद है..मिले जो कड़ी-कड़ी, एक-एक जंजीर बने...। (शायद ऐसा ही कुछ)
मिलावटखोरी बड़ी समस्या है। सब इससे त्रस्त हैं। मसाले में भी मिलावत होती है। मसाले में मिलावट करने वालों को वह भी गाली देता है, जो रोज दूध में पानी मिलाकर बेचता है। और मसाले में मिलावट करने वाला पतला दूध देखकर, पीकर पानी मिलाने वालों को गलियाता होगा। ...यह सिफॆ यह बताने की जरूरत है कि भ्रष्टाचार की जड़ें यही हैं। हमारे आपके आसपास। हमें मिलावटी मसाला नहीं खाना है तो दूध में पानी मिलाना भी बंद करें। केवल मसाले में मिलावट करने वालों को गलियाने से काम नहीं चलेगा।....जरा यह भी तय करें कि इस मामले में सरकार कितनी गैरजरूरी है।

बात खत्म नहीं हुई है। संभव हुआ तो इस चरचा को जारी रखना चाहूंगा।

संबोधन से उलझा आजादी का अर्थ

इसके पहले कि मैं आजादी का अर्थ तलाशती रपट का सिलसिला आगे बढ़ाऊं, पुरुषोत्तम जी को धन्यवाद दे लूं कि उन्होंने इस सिलसिले में अपने आलेख से चार चांद लगा दिये हैं। पिछली पोस्ट में मैंने आजादी के सच्चे अर्थ की तलाश में कुछ सरकारी संस्थानों की सैर पर अपने साथ चलने वालों को चलने का आग्रह किया था। हमने आजाद भारत के थानों और पुलिस व्यवस्था की हालत देखी। आगे चलें, इसके पहले हम जिक्र करना चाहेंगे पंद्रह अगस्त के दिन लाल किले के प्राचीर से अपने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के एक और नीरस भरे संबोधन का। आजादी का अर्थ तलाशते देशवासियों के समक्ष उम्मीद के मुताबिक इस बार भी प्रधानमंत्री ने उबाऊ और नीरस भाषण ही परोसा। पिछले पांच वर्षों से वे ऐसा ही भाषण करते आ रहे हैं। यह उनका छठा मौका था। प्रधानमंत्री ने सूखे से उत्पन्न संकट की चर्चा की और खौफ का पर्याय बने स्वाइन फ्लू के खतरे को कमतर करके बताया। देश जानता है कि कृषि क्षेत्र की समस्याओं के समाधान के लिए आज तक बुनियादी कदम नहीं उठाये गये हैं और यही हालत सेहत में सुधार को लेकर भी है। देश के स्वास्थ्य ढांचे में सुधार के कोई लक्षण नहीं दिख रहे हैं। लाल किले के प्राचीर से प्रधानमंत्रियों के संबोधन में जो एकरसता और रस्म अदायगी का भाव समावेशित हो चुका है, इस बार भी प्रधानमंत्री ने उसी का प्रदर्शन किया। देश की समस्याओं के समाधान की जो प्रतिबद्धता इस बार मनमोहन सिंह ने व्यक्त की है, वह वे पिछले पांच वर्षों से करते आ रहे हैं। सरकार हमेशा कहती है कि आतंकवाद और नक्सलवाद को जड़ से उखाडऩे के लिए हर कदम उठाये जायेंगे। पर, इस पर कैसा अंकुश लग पाया है, यह क्या किसी से छिपा है? मुंबई हमले के षड्यंत्रकारी खुलेआम घूम रहे हैं और पाकिस्तान से वार्ता के संदर्भ में आतंकवाद पर रोक लगाने की शर्त हटा दी गयी है। मनमोहन सिंह लच्छेदार भाषण देने के लिए वैसे भी नहीं जाने जाते और न ही उनकी ओर से ऐसा भाषण दिया जाना आवश्यक ही समझा जाता है। पर, एक कुशल प्रशासक के नाते उनसे देश को जो उम्मीदें हैं, कम से कम उस पर खरा उतरने की उन्हें कोशिश तो करनी ही चाहिए। इस कोशिश से भी उनका भाषण दूर ही दिखा। अपने भाषण में उन्होंने कुछ आश्वासन दिये। अब इस तरह के आश्वासन का क्या महत्व रह गया है कि सरकार महिला आरक्षण विधेयक पारित कराने को प्रतिबद्ध है? राष्ट्रपति के बाद प्रधानमंत्री ने भी कहा कि जब तक हमारा सरकारी तंत्र भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं होता, योजनाओं का फायदा जनता तक नहीं पहुंच पायेगा। पर, जब प्रशासनिक सुधार आयोग की रपट पर अमल की बात आयी तो इस मामले में भी आश्वासन ही मिला। अब इसका क्या मतलब है कि कोई प्रधानमंत्री यह कहे कि ऐसा-ऐसा करने की जरूरत है या यह-यह किया जाना चाहिए? जो करने की जरूरत है या जो किया जाना चाहिए, उसे लागू क्यों नहीं कराया जाता? किसके भरोसे सारा कुछ छोड़कर खुद की मुक्ति का किनारा खोजा जा रहा है? और नौ फीसदी विकास दर पाने का लालीपॉप, हासिल कर दिखाइए प्रधानमंत्री जी, रोका किसने है? लोग तो नब्बे रुपये प्रति किलो दाल और चालीस रुपये प्रति किलो चीनी खरीद रहे हैं, खरीदते रहेंगे। जनता से तो पूछते नहीं, आप जब मर्जी पेट्रोल-डीजल का दाम घटाइए-बढ़ाइए, जिसे जरूरत होगी, खरीदेगा ही। यह ठीक है कि इस बार के चुनाव में जनता ने आप पर भरोसा दिखाया और कांग्रेस फिर से गद्दी पाने में सफल रही, पर आजादी का मतलब आपके भाषणों तक जाकर भी कुछ ठीक से सही अर्थों में परिभाषित नहीं हो रही प्रधानमंत्री जी। लगातार छठी बार जनता को निराशा ही मिली। आजाद भारत के लोगों को एक आजाद रास्ता और एक आजाद मंजिल चाहिए। वह कब मिलेगी और कौन उपलब्ध करायेगा, इसका जवाब इस बार के स्वतंत्रता दिवस पर भी आपके भाषण से नहीं मिल रहा। आजादी का अर्थ तलाशती रपट का सिलसिला अभी जारी रहेगा। धन्यवाद।