शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

कहां है आजादी??

एक ऐसे बोर सब्जेक्ट पर लिखने को जी मचला है , जिसे मुद्दा बनाकर आज हर ओर हर कोई लिख रहा है। लिख रहा है और पूछता चल रहा है कि क्या लिखा है, वाह। मेरा यह लेख आपकी किसी वाह सुनने का मोहताज नहीं। यह पत्थर है, जो तबीयत से उछाला जा रहा है, शायद कहीं कोई सुराख पैदा हो जाय।
आजादी। बड़ा प्यारा नाम। दीवाना बना देने वाला, दिमाग को घूमाकर रख देने वाला भी। मगर यह कहां है? सवाल यह है। आइए, उन दो-चार सवालों से हम-आप इस पंद्रह अगस्त के बहाने रूबरू हो लें। आजादी-आजादी का माला तो हम फेर रहे हैं, पर कहां है आजादी, जरा इस पर गौर कर लें।
आजादी कहां है? उन गरीब की झोपड़ियों में जहां भूख-बीमारी-भय से दिन-रात, सुबह-शाम मशक्कत चल रही है? उन मध्यम वर्गीय नौकरी पेशा लोगों के घरों में जहां अपराधियों की तो छोड़िये कानून-व्यवस्था के रखवालों तक का भय चल रहा है? उन किसान परिवारों में जो कर्ज तले दबकर आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं या सुखाड़ व बाढ़ की चक्की में पिसकर राहत को भी मोहताज हो गये हैं? या उन अमीर घरानों में जहां पैसा पानी की तरह बह रहा है और आजाद मुल्क का हर कुनबा जहां हाथ जोड़े खड़ा है? उन पार्कों में जहां घुसते ही हिदायतें मिलनी शुरू हो जाती है, सिगरेट न पीयें, पान न खायें, फूल न छूएं-न तोड़ें? उन बस अड्डों पर जहां बस के आने-जाने के बारे में पूछना भी गुनाह समझा जाता है? उन रेलवे स्टेशनों पर जहां थूकना भी मना हो चुका है, यहां न थूकें-वहां न थूकें, लेकिन कहां थूकें, यह नहीं बताया जाता? उन स्कूलों में जहां पढ़ने के लिए नाम लिखाना भी एक जहमत भरा काम हो चुका है? उन प्राइवेट संस्थानों में जहां आठ घंटे काम करने या कराने की बात दम तोड़ चुकी है और चौबीस घंटों का शोषण चल रहा है? उन सरकारी संस्थानों में जहां रिश्वत सूंघाये बिना कोई फाइल आगे नहीं बढ़ रही, चहेते लगातार प्रोन्नति पाते जा रहे हों और काम करने वालों का वेतन तक रोक दिया जा रहा हो? उन सरकारी अस्पतालों में जहां मरीज कुत्ते समझे जाते हों? उन निजी नर्सिंग होमों में जहां के डाक्टर फीस के दस-पांच रुपये कम होने से इलाज से ही इनकार कर देते हों?
उफ् कहां है आजादी? बोलने की आजादी है? क्या कहीं भी कुछ भी बोला जा सकता है? अपने मन से काम करने की आजादी है? क्या आप अपनी योग्यता के अनुसार इस देश में काम ढूंढने और उस काम के लिए खुद को मुकर्रर करने को आजाद हैं? बच्चा जन्म लेता है, उसका नाम तक उसकी इच्छा के बगैर रखा जाता है। वह क्या करना चाहता है, यह कभी उससे नहीं पूछा जाता। स्कूल-कालेजों से सफर करता वह दफ्तरों-दुकानों तक पहुंच जाता है और हर जगह उस पर शासन करने वाले, उस पर नियंत्रण करने वालों की कतार खड़ी दिखती है, क्या यही है आजादी? नेतागीरी करने वाले तक क्या आजाद हैं? कोई मनमोहन, कोई जार्ज तक कठपुतलियों की तरह किसी सोनिया तो किसी नीतीश-शरद के इशारों पर नाचते दिखते हैं तो नेताओं के लिए भी क्या आजादी है? देश आज स्वतंत्रता की ६२वीं सालगिरह मना रहा है। ऐसे मौके पर आजादी के अर्थ, सच्चे अर्थ को समझने की कोशिश का यह सिलसिला जो शुरू किया गया है, वह अभी जारी रहेगा। फिलहाल इतना ही। इस बीच सुझावों का स्वागत होगा। धन्यवाद।