शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2009

दादा, आपने ये क्या कह दिया!

दादा, आपने गुरुवार को संसद में शाप देने के अंदाज में जो कहा, उसमें मैं आपकी कोई गल्ती नहीं देखता। सच मानियेगा। हल्ला-हंगामा करने वाले सांसदों को आने वाले चुनाव में हार जाने का शाप देकर आपने बिल्कुल आम अवाम की आवाज को ही बुलंद किया है। लेकिन, मैं आप ही से पूछना चाहूंगा कि आप जिस कुर्सी पर बैठे हैं, उस कुर्सी से इस प्रकार की आवाज का सुनना क्या आपको ही अच्छा लगा? कई सवाल मेरे मन में उठ रहे हैं, जो आपसे और सिर्फ आपसे ही पूछना चाहता हूं। निश्चित मानियेगा, ये सवाल आपके खिलाफ जाकर नहीं कर रहा हूं। ये सवाल आपकी आवाज और उसकी मुखरता के साथ रहकर कर रहा हूं।
सबसे पहला सवाल-क्या आपको नहीं लगता कि आप बूढ़े गये हैं? बूढ़ा का मतलब बलहीन, तेजहीन। बात-बात पर झल्लाने वाला, हमेशा अपने मतलब की धुन में मगन रहने वाला। आपने भी कुछ वैसा ही तो नहीं किया? वो विपक्षी सांसद थे। कहीं और नहीं, संसद में हल्ला कर रहे थे। दादा, चुनाव सर पर है और आप देख ही रहे हैं कि पब्लिक के पास जाने लायक और वोट मांगने लायक देश में मुद्दों का अभाव चल रहा है। बड़ी-बड़ी हस्तियां मुद्दे तलाश रही हैं। तो यह तो निश्चित ही है कि इस तरह के हल्ले होंगे। यह तो आम पब्लिक भी जान रही है। इसमें क्या इतना झल्लाने की जरूरत थी कि उन्हें अगले चुनाव में हार जाने का शाप देना आपके लिए जरूरी लगने लगा? और शाप भी लोकतंत्र के मसीहाओं की रखवाली करने वाले सरदार की ओर से? सरदार इतना बलहीन, तेजहीन! मगर नहीं, मुझे तो साफ लग रहा है कि यह संसद के मजबूत अध्यक्ष का नहीं, एक लाचार बूढ़े का भीषण प्रलाप था। आप बताएं कि क्या नहीं था? और इससे आगे की बात। दादा, 58 साल के बाद एक इंसान को आप किरानी बनने के लायक नहीं समझते, तो इसके पार का आदमी देश चलाने के लायक क्यों समझ लिया जाता है? यह ऐसा सवाल है, जिसका मौजूं मिजाज आपके संदर्भों में अब आपके ही सामने है। जवाब दे सकते हैं तो दीजिए।
दूसरा सवाल - दादा, क्या आपको नहीं लगता कि आपके शाप के बाद पूरे देश मे एक बड़ी बहस शुरू हो जानी चाहिए? बहस यह कि संसद में सांसदों को हल्ला करना चाहिए या नहीं? इस हल्ले का अर्थ मैं तो विरोध की आवाज से लेता हूं। आप बतायें क्या यह गलत है? मुझे लगता है, आप भी इसे विरोध की आवाज ही कहेंगे। तो सवाल यह है दादा, विपक्ष के लोग विरोध की आवाज उठाएं या नहीं? उठाएं तो उनका अंदाज क्या हो? दादा, क्या आपको नहीं लगता कि पूरे सिस्टम में नकारापन बज रहा है। इस नकारेपन में अपनी आवाज ऊपर उठाने के लिए उसे तेज ही तो करनी होगी। दादा, आतंकवादी विस्फोट पर विस्फोट कर रहे थे औऱ हमारे गृहमंत्री कपड़े बदलने में मशगूल थे। कुछ बोलने के लिए बोला गया तो कहने लगे कि क्या मैं चिल्लाऊं? आप तो इस बात के गवाह हैं कि कैसे उनकी हरकतों के खिलाफ पूरा देश चिल्ला रहा था। इसी चिल्लाहट का नतीजा तो था कि सरकार चेती और उन्हें उनके पद से हटाया गया।
और सबसे अहम सवाल - दादा, क्या संसद अध्यक्ष की कुर्सी भीष्म पितामह की तरह सत्ता के प्रति समर्पित होती है? क्या उसका हर काम, हर मुकाम सत्ता शीर्ष की रखवाली तक समाप्त हो जाता है? औऱ क्या आप इससे इनकार करेंगे कि ऐसा होने पर ही तो महाभारत हुआ? देश ने तो देखा है। गलत-सही की बात मैं नहीं कर रहा, लेकिन इतना तो आप भी मानेंगे दादा कि इसी रास्ते पर चलते हुए आप अपने उन साथियों और घर से बिल्कुल अलग हो गये, जो आपके हमकदम थे, हमसफर थे। सवाल यह कि आम आदमी क्या सबक ले? निष्ठाएं क्या इतनी ही तेजी से बदली जानी चाहिए?
दादा, मैं एक बार फिर कहना चाहूंगा कि मुझे आपकी बातों से सरासर इत्तेफाक है। मगर सवाल हैं कि सर उठा रहे हैं। इस देश में एक सबसे बड़ी खराबी थी, वह यह थी कि सवाल उठाने वालों का मुंह बंद कर दिया जाता था। यह सामंती प्रथा का लक्षण था। लोकतंत्र का मतलब ही होता है आवाज की रवानगी। इस रवानगी पर रोक लग गयी, सवाल उठाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया तो जवाब कहां से आएंगे? दादा, आप बताएं, जवाब कहां से आएंगे? सांसद अगले चुनाव में हारें या जीतें पर सवाल यह है कि सवाल तो फिर भी उठाना होगा, जवाब फिर भी ढूंढ़ने होंगे। होंगे कि नहीं?