मंगलवार, 7 अगस्त 2012

हालिया चोटें - फिजा और गीतिका

चांद की फिजा की रहस्यमय मौत और एयर होस्टेस गीतिका की खुदकुशी की खबरें पढ़ी आपने? इन दोनों वारदातों से कुछ सबक लिया आपने? जरूर लिया होगा। लेकिन क्या, यह सबसे बड़ा सवाल है। आप दोष भी दे रहे होंगे, धिक्कार भी रहे होंगे, पर सवाल है किसे? चांद को? जिसकी मोहब्बत में एक लड़की ने न केवल अपना परिवार छोड़ दिया, धर्म बदल लिया, बल्कि सारे जमाने के सामने खुद को रुसवा करने से भी बाज नहीं आई और उसके मरने के बाद जो उसके साथ किसी रिश्ते से भी पल्ले झाड़ता चल रहा है? उस ऊंचे राजनैतिक रसूख वाले हांडा को जिसकी एयरलाइंस कंपनी में गीतिका नौकरी करती थी और वहां से नौकरी छोड़ देने के बाद उस पर न जाने क्यों जो फिर से नौकरी ज्वायन कर लेने का दबाव बना रहा था?

माफ कीजिएगा, लेकिन कहना चाहूंगा कि इन मौतों के लिए सिर्फ चांद या हांडा को ही जिम्मेवार ठहरा देना काफी नहीं होगा। न, कतई नहीं। जरा आगे की लाइनों पर गौर फरमाइए। हम क्या कर रहे हैं? थोथी दलीलें, बकवास बातें, ऊंची उड़ानों की नई नई जिहादें, नारी की आजादी की पूरी तरह नंगी शिक्षाएं। हकीकत से आंखें मूंदें इक्कीसवीं सदी का अफसाना लिख रहे हैं, तराना गा रहे हैं। और क्या चाहिए इंडिया, बस हो गया बेड़ा पार। आजादी के नाम पर लड़कियों को सड़कों पर निकाल दिया, नंगा कर दिया। बाहर क्या हाल है? कदम-कदम पर लुटेरे, चोर, बदमाश, शोहदे, लफंगे बेलगाम घूम रहे हैं। और बेलगाम क्यों, सुरक्षा में, अत्याधुनिक हथियारों से लैस, ताकतवर बनकर। अब लड़कियों के साथ छेड़खानी हो रही है, बलात्कार हो रहा है, हत्या हो रही है, लाश में कीड़े पड़ रहे हैं। और हम गीत गा रहे हैं, इक्कीसवीं सदी में यह क्या हो रहा है? यह क्या हो रहा है?

समाज को विचार करना होगा। विचार करना ही होगा कि किसकी कितनी आजादी जरूरी है। यह समझना होगा कि विपरीत लिंगों के प्रति आकर्षण सहज और स्वाभाविक है। हमारे पूर्वजों ने महिला और पुरुष के लिए कुछ अवधारणाएं यूं ही स्थापित नहीं कर रखी थीं, कुछ नियम-कानून-शर्तें यूं ही नहीं बना रखे थे। हम क्या कर रहे हैं? अंधानुकरण। यह जिन दोषों को अपने साथ लेकर आ रहा है, ला चुका है, उसे क्या कहने की जरूरत है? बसों में, रेलों में, मेट्रो में, सड़कों पर, दफ्तरों में यानी  सरेआम क्या नहीं दिख रहा? एक पार्क में चले जाइए, बैठ नहीं पाएंगे। जोड़ों का राज है। किसी सी-बीच पर घूम आइए, सब कुछ खुल्लम-खुल्ला है। राम, कृष्ण, परमहंस और गांधी, नेहरू, सुभाष की धरती पर प्यार का खेल अब सरेआम है। कहीं रेव पार्टी है तो कहीं असली पार्टी..... एक मर्यादा, एक परंपरा, महिला-पुरुषों के बीच का एक अनुशासन टूट गया है, क्या ऐसा नहीं लगता? मान्यताएं टूटती हैं तो चोट सीधे दिलों पर या दिमागों पर ही लगती है। और यह लग रही है। हालिया इन चोटों का नाम है फिजा की सड़ी गली लाश और गीतिका की खुदकुशी।

और यह इस सीरीज की न तो पहली चोट है और निश्चित मानिए, न आखिरी है। जब आप इन पंक्तियों को पढ़ रहे होंगे तो निश्चित रूप से देश के किसी कोने में कोई गीतिका खुदकुशी कर रही होगी या किसी फिजा की लाश को कीड़े चाट रहे होंगे। सवाल है कि हम कब तक वर्जनाओं के तोड़ने का, परंपराओं के ध्वस्त करने का, मर्यादाओं के नेस्तनाबूत कर देने का, आचरण और चरित्र के भेद को पाट देने का, रीति-रिवाजों से दूर चले जाने का, संस्कृति को अंधानुकरण की काली चादर से ढंक देने का  अपना दोष छुपाते रहेंगे? कब तक? कब तक इक्कीसवीं सदी में पहुंच जाने का गीत गाते रहेंगे और कब तक व्यवस्थाओं की जमीनी हकीकत से आंखें बंद किए रहेंगे? आखिर कब तक? और आखिरी बात। बिजलियां गिरी हैं, घर जले हैं, मगर सब कुछ अभी राख नहीं हुआ। बस, हमें थोड़ा सा संभलना होगा और संभालना होगा अपने नौनिहालों को। सवाल है कि कौन यह जिम्मेवारी निभाएगा, कौन?