रविवार, 16 अगस्त 2009

खुद को भी तो बदलिए

यह कैसी आजादी? यह जुमला हमें अक्सर पढ़ने-सुनने को मिल जाता है। समाज, देश और व्यवस्था की दुरावस्था से त्रस्त लोग ऐसा कहते हैं। लेकिन देश, समाज की दुरावस्था से आजादी का क्या लेना-देना। भ्रष्टाचार, नाकामी और काहिली के लिए आजादी कहां से जिम्मेदार हो गई। भई, आजादी हमें बड़ी मुश्किल से मिली थी। यह आजादी अनमोल है। आपकी व्यवस्था गड़बड़ है तो व्यवस्था सुधारने की बात करिए। आजादी को क्यों कोसते हैं।

मुझे लगता है कि हमारे देश की सबसे बड़ी त्रासदी यही है। हम हर परेशानी, समस्या आफत के लिए किसी को कोस कर मुक्त हो जाते हैं। समस्या दूर हो, खत्म हो, इसके लिए प्रयास नहीं करते। गांव-देहात से लेकर शहर तक जहां देखिए लोग व्यवस्था और शासन-प्रशासन को गरियाते नजर आएंगे। बिजली-पानी नहीं है तो नेता दोषी। हत्या हुई, लूट हुई तो सरकार दोषी। हर समस्या, हर गलत बात के लिए किसी को कोसो और चुपचाप सो जाओ। ऐसा करके हम तो अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो लिए। देश, समाज के लिए अब हमें कुछ नहीं करना। यह समस्या का सरलीकरण है। शासन-प्रशासन के किए हर गलत-सही का असर पूरे समाज पर पड़ता है। इसलिए इनके प्रति आशंकित रहना, इन पर नजर रखना और अच्छे-बुरे पर हंगामा करना, इनमें से कुछ भी गलत नहीं है। लोकतंत्र का मतलब भी यही है।

शासन-प्रशासन से अलग हटकर देखें हमारे-आपके स्तर पर ही न जाने कितनी गड़बड़ियां हैं। खुद को टटोलकर इन्हें दूर करने की हम कितनी कोशिश करते हैं। आखिर जिन नेताओं की करतूतों पर हम उन्हें गाली देते हैं, वे भी तो हमारे ही समाज से आते हैं। घूस देकर बच्चों को नौकरी दिलवाकर योग्य का हक मारने, खाद्य पदार्थों में मिलावट कर समाज को जहर खिलाने-पिलाने वाले लोग क्या केवल नेता ही हैं? दूध में पानी मिलाने, जैसे भी हो, एन-केन-प्रकारेण बच्चों का स्कूल और कालेज में एडमिशन करवाने को जब हम मान्यता देंगे तो भविष्य में इसके परिणाम अच्छे नहीं होंगे, हम यह मानकर क्यों न चलें? जिसे जहां मौका मिलता है, अनुशासन और नियम तोड़ता है। और फिर हम ...इतना तो चलता है, मानकर आंख मूंद लेते हैं। भ्रष्टाचार छोटा चलेगा, बड़ा नहीं, ऐसा हो सकता है क्या?

नेताओं के अवसरवाद को कोसने वाले पूरे समाज में पैठ बना चुके अवसरवाद को कोसें, तभी बात बनेगी। चंद हजार रुपयों के लिए देश छोडऩे वाले, संस्थान छोडऩे वालों को तो हम तरक्कीपसंद मानते हैं, लेकिन कोई नेता अपनी बेहतरी के लिए दल छोड़ता है, साथी छोड़ता है तो उसे गाली देते हैं। दोनों तरह के अवसरवाद के नतीजे छोटे-बड़े हो सकते हैं, अर्थ तो नहीं बदलते! समाज में अंतिम पायदान तक जड़ें जमा चुके भ्रष्टाचार और अवसरवाद को हम भ्रष्टाचार और अवसरवाद मानना ही नहीं चाहते। जब मानते ही नहीं तो उस पर भला कोई हंगामा क्यों करेगा, उसे रोकने के उपाय क्यों करेगा? रोकने के उपाय नहीं होंगे तो ये फले-फूलेंगे। फल-फूलकर ये जब बड़े नतीजे देते हैं तो हमें दिक्कत होती है। इतना तो चलता है...न जाने कब ..सब चलता है, में बदल जाए!

सीधी सी बात है, नेताओं के अवसरवाद और भ्रष्टाचार पर रोकर कर्तव्य को पूरा हुआ मान लेने से काम नहीं चलेगा। कमर इस बात के लिए भी कसें कि जहां इसके बीज डाले जाते हैं, वहां भी पहरेदारी हो। अन्यथा दूसरा सहज रास्ता यह है कि जिस तरह हमने समाज में फैले कथित छोटे- छोटे भ्रष्टाचार को सहज मान लिया है, उसी तरह बड़े पैमाने पर होने वाले बड़े भ्रष्टाचार को स्वीकार कर लें। जाहिर है, दूसरा रास्ता खतरनाक है। बताने की जरूरत नहीं कि बेहतर लोकतंत्र के लिए बेहतर नागरिक भी चाहिए। लेकिन एक नागरिक के रूप में हर कोई...हम नहीं बदलेंगे, का झंडा बुलंद किए हुए है और उम्मीद करते हैं कि हमारे नेता साफ-सुथरे और हमारी चिंता करने वाले हों। हम खुद पान खाकर आफिस और घर की दीवारों पर थूकेंगे लेकिन कल्पना करेंगे सजे-संवरे देश और शहर की। अपना कूड़ा सड़क और पार्क के किनारे फेंकेंगे और गंदगी की समस्या के लिए अधिकारियों को कोसेंगे।

आपका नेतृत्व करने वाले ये लोग उसी समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं, जहां सरकारी दफ्तरों में एक फाइल को कर्मचारी और अधिकारी महीनों लटकाते हैं। वे लोग आप जैसे लोगों के बीच से ही हैं, जो इन दफ्तरों में जाकर घूस देकर अपना काम करवा आते हैं और उसे गलत भी नहीं मानते। ज्यादा हुआ तो घर आकर कर्मचारियों-अधिकारियों को बुरा-भला कहकर गुस्सा निकाल लिया। बात फिर वहीं है। सिर्फ इतने से काम नहीं चलेगा। बेहतर नेतृत्व और बेहतर देश चाहते हैं तो बदलना खुद को भी होगा। इसके लिए अपने आप को तैयार करें।

कभी जंग-ए-आजादी, आज जश्न-ए-आजादी

कोई गफलत नहीं, कोई शिकायत नहीं, पर यह सच है। यह सच है कि आज जो जश्न-ए-आजादी चल रहा है, वह कभी हुई जंग-ए-आजादी के दम पर ही टिका है। कहीं पढ़ा था। भगत सिंह जेल में बंद थे। उनकी माता उनसे मिलने आयीं। भगत सिंह को सूचना दी गयी कि उनकी माता उनसे मिलने आयी हैं। भगत सिंह सोच रहे थे कि उन्हें तो फांसी होगी, माता आयी है, कैसे कर सकेंगे उनका सामना, क्या बता पायेंगे। दिल कड़ा कर हंसते चेहरे के साथ माता के सामने आये। कहने लगे- मुझे कुछ नहीं होगा मां, बड़े रहमदिल लोग हैं वे, मुझे छोड़ देंगे, आप घबराना मत। और जो मां ने कहा, वह किसी भारतवासी का कलेजा चीर कर रख देने के लिए काफी है, हां देश के प्रति सम्मान का थोड़ा सा भी जज्बा हो तो उनकी बातों से सीना चौड़ा भी होता है। मां ने कहा- बेटे, मुझे झांसा न दो, मैं जानती हूं कि तुम्हें ये लोग नहीं छोड़ेंगे, यदि मेरे और बेटे होते और वे भारत माता को आजाद कराने के लिए अपनी कुर्बानी देते तो मुझे गर्व होता। यह जंग-ए-आजादी का जज्बा था। देश पर जान निसार कर देने का हिलोरा था। हर दिल में, उन दिलों से निकलने वाली हर सांस में। एक से बढ़करएक थे सभी। बेटा से बढ़कर मां, मां से बढ़कर बेटा। अब जश्न-ए-आजादी है। आजादी के नाम पर, मैं किसी का नाम नहीं लेता मगर यकीन मानिए मैं उन्हें पहचानता हूं, जश्न-ए-आजादी के नाम पर पवित्र दिन को भी संयम नहीं रख पाते। टेबलें सजती हैं, बोतलें खुलती हैं, प्लेटों में मांसाहारउफ, उफ क्या यही है आजादी?? और उन महफिलों में कमसिनों के नथ कैसे और कहां उतारे जायेंइसका प्लान बनता है, सरकारी योजनाओं का कितना पैसा अपनी जेब तक पहुंचाये जायें, इस पर मशक्कत चलती है, इस साल किस जाति कोकिस जाति से लड़ा दिया जाय, इसका ब्लू प्रिंट तैयार होता है, हिन्दु-मुस्लिम कैसे लड़ें, इस पर ग्रैंड ओपिनियन का सिलसिला चलाया जाता है। एक को दोष न दीजिए। हम्माम में सब नंगे हैं, सब। हम, आप, वे सभी। क्या नेता, क्या अधिकारी, क्या पत्रकार, क्या कारोबारी, क्या गुंडे, क्या अपराधी, सभी। जी हां, सभी। इस बात में कोई लोचा दिखता हो तो मैं आपको एक-एक कर आपको कुछ स्थलों की सैर कराता हूं। जिगर थामकर मेरे साथ चलिए।
आप खुद को शरीफ शहरी मान लीजिए। अब आप निकले हैं बाजार। आप नसीब वाले भी हैं। मान लेते हैं कि आपका साबका किसी गुंडे-बदमाश से नहीं पड़ा। एक छोटी सी घटना पेश आयी। बाजार की भीड़ में आपका मोबाइल फोन कहीं गिर गया। आपके लिए सबसे पहला काम इसकी रपट थाने में लिखवाना होगा। जाइए थाने, मेरे आग्रह पर ही सही जाइए थाने। मेरी गारंटी है कि आप रपट नहीं लिखवा सकते। पहले तो कोई बात नहीं सुनेगा। सुनेगा भी तो पचीस फच्चर। कोर्ट जाइए, एफेडेबिट कराइए, फिर आइए, फिर आइए, बड़ा बाबू (थानेदार) नहीं हैं, वही फैसला लेंगे। और आपने जरा सा सूंघाया (हरा पत्ता) कि काम दनादन, दामाद जैसी आवभवत। पूरे तामझाम और एकाध दो दिन खराब करने के बीच आपको लग जायेगा कि आप किसी आजाद मुल्क के जनकल्याणकारी व्यवस्था के बीच सांसें नहीं ले रहे हैं। यदि किसी ने बाजार में आपको तमाचा खींच दिया और उसकी शिकायत करने, इंसाफ मांगने आप थाने पहुंच गये तो फिर माफ कीजिए, वहां आपके साथ जो सलूक होगा, उसका अनुभव आप ही कर सकते हैं। मेरा तो अनुभव है कि कोई तमाचा मार दे तो उसे पूज्य बापू को याद करते बर्दाश्त कर जाइए, पर थाने न जाइए। तमाचा तो आप खा ही चुके हैं, फजीहत और जेब की लूट भी वहां जज्ब करने होंगे , इसकी गारंटी देता हूं।और तब मेरी गारंटी है कि आपके जेहन में सिर्फ एक ही सवाल तूफान बनकर गुजरेगा- क्या यही है आजादी?? आजादी के अर्थ, सच्चे अर्थ को समझने की कोशिश का १४ अगस्त से शुरू सिलसिला अभी जारी रहेगा। फिलहाल इतना ही। इस बीच आपके सुझावों का स्वागत होगा। धन्यवाद।