सुविधा है तो कुछ भी लिखेंगे?
लगता है बात गलत दिशा में मुड़ गई है। ऐसे में सीधी बात करें तो बेहतर। पिछले दो पोस्ट पर जो टिप्पणियां आईं, उनमें से कुछ का मतलब यह है कि ब्लागजगत में मानक की बात करना बेमानी है। ऐसा क्यों?क्या सिफॆ इसलिए कि हमारे पास यह सुविधा है कि हम कुछ भी लिखें प्रकाशित होगी।
हम अक्सर इस बात को लेकर चिंता जताते हैं कि राजनीति में आने के लिए कोई मानक तय नहीं है। हालत यह है कि हम भ्रष्टाचार, अनाचार और सियासी गुंडा तत्वों को कोसने के अलावा कुछ नहीं कर पाते। हमारे नीति निमाॆताओं ने सियासत में सबके लिए समान अवसर देने के लिए कोई मानक नहीं तय किया था। जाहिर है, कोई मानक न होने को तब विशेषता ही माना गया होगा।
मतलब रोक-टोक न होने का दुरुपयोग हर जगह धड़ल्ले से होता है। ऐसे में कुछ नैतिक जिम्मेदारियां ब्लाग लेखकों के लिए भी तय की जाए तो बेहतर हो।
आखिर क्यों हम सेक्स और हिंसा से भरपूर, दोहरे अथॆ वाले फूहड़ संवादों वाली फिल्मों की आलोचना करते हैं। कई बार इसके लिए तकॆ दिया जाता है कि फिल्में समाज का आईना है। समाज में जो कुछ हो रहा है, वही दिखाया जा रहा है। हम इस तकॆ को नहीं मानते। कहते हैं, यह बहानेबाजी है। न ही हम इस तकॆ को मानते हैं कि दशॆक जो देखना चाहता है, हम वही तो दिखाते हैं।
हमें लगता है, ठीक वैसे ही हमें यह तकॆ भी नहीं मानना चाहिए कि कुछ भी लिखा जाए, ब्लाग पढने वाले उसे पढ़ते हैं, इसलिए सबकुछ जायज है। फिल्मों से ही समझें, पैसा लगाने वाला जैसी फिल्म चाहे दिखा सकता है क्या। उससे लिए कुछ बंदिशें हैं। नैतिकता का तकाजा है। सेंसर बोडॆ है। फिल्म बनाने वालों का यह तकॆ भी नहीं माना जाता कि जिसे फिल्म देखना है देखे, जिसे नहीं देखना नहीं देखे। ब्लागों पर पढ़ाने, दिखाने का पैसा नहीं लगता, इसका मतलब यह तो नहीं कि कुछ भी लिखा जाए। हमें लगता है कि जैसी नैतिकता हम फिल्म बनाने वालों के पास देखना चाहते हैं, जैसी नैतिकता की हम सड़क पर चलने वाले एक आदमी से उम्मीद करते हैं, ठीक वैसी ही नैतिकता की उम्मीद ब्लाग लेखन करने वालों से क्यों नहीं होनी चाहिए।
क्या ऐसा नहीं हो सकता कि....
-ब्लाग पर लिखने की पहली शतॆ भाषा की शुद्धता हो।
-अश्लीलता और हिंसा से परहेज किया जाए।
-हम एक दूसरे पर व्यक्तिगत हमले वाले लेख न लिखे जाएं।
-एक दूसरे की छीछालेदार की कोशिश में न लगे रहें।
(आखिर इससे कौन सा भला और किसका मनोरंजन होता है, सिवाय लिखने वालों के)
-तू मुझे मुल्ला कहे, मैं तुझे काजी कहूं की परंपरा बंद हो।
-बच्चा पैदा होने से लेकर श्राद्ध तक वाह-वाह बंद हो।
-एक दूसरे को ईमानदारी से पढ़ने और राय देने की कोशिश हो।
(एक बार फिर से, ब्लागों पर बात भय, भूख और भ्रष्टाचार से लड़ने की भी होनी चाहिए)
बातें अभी और हैं। बहस जारी रहेगी। आपके विचार आमंत्रित हैं।
पुरुषोत्तम, कौशल
सोमवार, 31 अगस्त 2009
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3 टिप्पणियां:
ईर, बीर, फत्ते वाली कहानी है हम सभी कहते है की कुछ मानक होने चाहिए
जहाँ तक मुझे लगता है मानक होना चाहिए आपका जमीर
अगर आपको लगता है की वो बात जो हम कही कहे और हमारी शर्मिंदगी का वायस बन जाये, तो उसे ब्लोगिंग में भी न कहे
बाकी समझदार को समझाना नहीं पड़ता और नासमझ को आप समझा नहीं सकते
वीनस केसरी
aapki baat to sahi hi hai, kyonki sab ulta pulta blog par chalta rahega to is madhyam ko behtar kaise banaya ja sakega. parantu mujhe lagta hai ki bahut jaldi se kuchh sambhav nahi hai. blog ki dunia purani hogi tab apne aap yah jarurat bhi mahsus hogi.lekin aapki baat mein dum hai.
बिल्कुल सच बतलाऊं
करेंगे सच का सामना
जी हां, ऐसा नहीं हो सकता।
उम्मीद तो कर सकते हैं
कर भी रहे हैं
पर ऐसा नहीं हो सकता
इसे भी हमें मान लेना चाहिए।
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