रविवार, 16 अगस्त 2009

कभी जंग-ए-आजादी, आज जश्न-ए-आजादी

कोई गफलत नहीं, कोई शिकायत नहीं, पर यह सच है। यह सच है कि आज जो जश्न-ए-आजादी चल रहा है, वह कभी हुई जंग-ए-आजादी के दम पर ही टिका है। कहीं पढ़ा था। भगत सिंह जेल में बंद थे। उनकी माता उनसे मिलने आयीं। भगत सिंह को सूचना दी गयी कि उनकी माता उनसे मिलने आयी हैं। भगत सिंह सोच रहे थे कि उन्हें तो फांसी होगी, माता आयी है, कैसे कर सकेंगे उनका सामना, क्या बता पायेंगे। दिल कड़ा कर हंसते चेहरे के साथ माता के सामने आये। कहने लगे- मुझे कुछ नहीं होगा मां, बड़े रहमदिल लोग हैं वे, मुझे छोड़ देंगे, आप घबराना मत। और जो मां ने कहा, वह किसी भारतवासी का कलेजा चीर कर रख देने के लिए काफी है, हां देश के प्रति सम्मान का थोड़ा सा भी जज्बा हो तो उनकी बातों से सीना चौड़ा भी होता है। मां ने कहा- बेटे, मुझे झांसा न दो, मैं जानती हूं कि तुम्हें ये लोग नहीं छोड़ेंगे, यदि मेरे और बेटे होते और वे भारत माता को आजाद कराने के लिए अपनी कुर्बानी देते तो मुझे गर्व होता। यह जंग-ए-आजादी का जज्बा था। देश पर जान निसार कर देने का हिलोरा था। हर दिल में, उन दिलों से निकलने वाली हर सांस में। एक से बढ़करएक थे सभी। बेटा से बढ़कर मां, मां से बढ़कर बेटा। अब जश्न-ए-आजादी है। आजादी के नाम पर, मैं किसी का नाम नहीं लेता मगर यकीन मानिए मैं उन्हें पहचानता हूं, जश्न-ए-आजादी के नाम पर पवित्र दिन को भी संयम नहीं रख पाते। टेबलें सजती हैं, बोतलें खुलती हैं, प्लेटों में मांसाहारउफ, उफ क्या यही है आजादी?? और उन महफिलों में कमसिनों के नथ कैसे और कहां उतारे जायेंइसका प्लान बनता है, सरकारी योजनाओं का कितना पैसा अपनी जेब तक पहुंचाये जायें, इस पर मशक्कत चलती है, इस साल किस जाति कोकिस जाति से लड़ा दिया जाय, इसका ब्लू प्रिंट तैयार होता है, हिन्दु-मुस्लिम कैसे लड़ें, इस पर ग्रैंड ओपिनियन का सिलसिला चलाया जाता है। एक को दोष न दीजिए। हम्माम में सब नंगे हैं, सब। हम, आप, वे सभी। क्या नेता, क्या अधिकारी, क्या पत्रकार, क्या कारोबारी, क्या गुंडे, क्या अपराधी, सभी। जी हां, सभी। इस बात में कोई लोचा दिखता हो तो मैं आपको एक-एक कर आपको कुछ स्थलों की सैर कराता हूं। जिगर थामकर मेरे साथ चलिए।
आप खुद को शरीफ शहरी मान लीजिए। अब आप निकले हैं बाजार। आप नसीब वाले भी हैं। मान लेते हैं कि आपका साबका किसी गुंडे-बदमाश से नहीं पड़ा। एक छोटी सी घटना पेश आयी। बाजार की भीड़ में आपका मोबाइल फोन कहीं गिर गया। आपके लिए सबसे पहला काम इसकी रपट थाने में लिखवाना होगा। जाइए थाने, मेरे आग्रह पर ही सही जाइए थाने। मेरी गारंटी है कि आप रपट नहीं लिखवा सकते। पहले तो कोई बात नहीं सुनेगा। सुनेगा भी तो पचीस फच्चर। कोर्ट जाइए, एफेडेबिट कराइए, फिर आइए, फिर आइए, बड़ा बाबू (थानेदार) नहीं हैं, वही फैसला लेंगे। और आपने जरा सा सूंघाया (हरा पत्ता) कि काम दनादन, दामाद जैसी आवभवत। पूरे तामझाम और एकाध दो दिन खराब करने के बीच आपको लग जायेगा कि आप किसी आजाद मुल्क के जनकल्याणकारी व्यवस्था के बीच सांसें नहीं ले रहे हैं। यदि किसी ने बाजार में आपको तमाचा खींच दिया और उसकी शिकायत करने, इंसाफ मांगने आप थाने पहुंच गये तो फिर माफ कीजिए, वहां आपके साथ जो सलूक होगा, उसका अनुभव आप ही कर सकते हैं। मेरा तो अनुभव है कि कोई तमाचा मार दे तो उसे पूज्य बापू को याद करते बर्दाश्त कर जाइए, पर थाने न जाइए। तमाचा तो आप खा ही चुके हैं, फजीहत और जेब की लूट भी वहां जज्ब करने होंगे , इसकी गारंटी देता हूं।और तब मेरी गारंटी है कि आपके जेहन में सिर्फ एक ही सवाल तूफान बनकर गुजरेगा- क्या यही है आजादी?? आजादी के अर्थ, सच्चे अर्थ को समझने की कोशिश का १४ अगस्त से शुरू सिलसिला अभी जारी रहेगा। फिलहाल इतना ही। इस बीच आपके सुझावों का स्वागत होगा। धन्यवाद।

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