यह कैसी आजादी? यह जुमला हमें अक्सर पढ़ने-सुनने को मिल जाता है। समाज, देश और व्यवस्था की दुरावस्था से त्रस्त लोग ऐसा कहते हैं। लेकिन देश, समाज की दुरावस्था से आजादी का क्या लेना-देना। भ्रष्टाचार, नाकामी और काहिली के लिए आजादी कहां से जिम्मेदार हो गई। भई, आजादी हमें बड़ी मुश्किल से मिली थी। यह आजादी अनमोल है। आपकी व्यवस्था गड़बड़ है तो व्यवस्था सुधारने की बात करिए। आजादी को क्यों कोसते हैं।
मुझे लगता है कि हमारे देश की सबसे बड़ी त्रासदी यही है। हम हर परेशानी, समस्या आफत के लिए किसी को कोस कर मुक्त हो जाते हैं। समस्या दूर हो, खत्म हो, इसके लिए प्रयास नहीं करते। गांव-देहात से लेकर शहर तक जहां देखिए लोग व्यवस्था और शासन-प्रशासन को गरियाते नजर आएंगे। बिजली-पानी नहीं है तो नेता दोषी। हत्या हुई, लूट हुई तो सरकार दोषी। हर समस्या, हर गलत बात के लिए किसी को कोसो और चुपचाप सो जाओ। ऐसा करके हम तो अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो लिए। देश, समाज के लिए अब हमें कुछ नहीं करना। यह समस्या का सरलीकरण है। शासन-प्रशासन के किए हर गलत-सही का असर पूरे समाज पर पड़ता है। इसलिए इनके प्रति आशंकित रहना, इन पर नजर रखना और अच्छे-बुरे पर हंगामा करना, इनमें से कुछ भी गलत नहीं है। लोकतंत्र का मतलब भी यही है।
शासन-प्रशासन से अलग हटकर देखें हमारे-आपके स्तर पर ही न जाने कितनी गड़बड़ियां हैं। खुद को टटोलकर इन्हें दूर करने की हम कितनी कोशिश करते हैं। आखिर जिन नेताओं की करतूतों पर हम उन्हें गाली देते हैं, वे भी तो हमारे ही समाज से आते हैं। घूस देकर बच्चों को नौकरी दिलवाकर योग्य का हक मारने, खाद्य पदार्थों में मिलावट कर समाज को जहर खिलाने-पिलाने वाले लोग क्या केवल नेता ही हैं? दूध में पानी मिलाने, जैसे भी हो, एन-केन-प्रकारेण बच्चों का स्कूल और कालेज में एडमिशन करवाने को जब हम मान्यता देंगे तो भविष्य में इसके परिणाम अच्छे नहीं होंगे, हम यह मानकर क्यों न चलें? जिसे जहां मौका मिलता है, अनुशासन और नियम तोड़ता है। और फिर हम ...इतना तो चलता है, मानकर आंख मूंद लेते हैं। भ्रष्टाचार छोटा चलेगा, बड़ा नहीं, ऐसा हो सकता है क्या?
नेताओं के अवसरवाद को कोसने वाले पूरे समाज में पैठ बना चुके अवसरवाद को कोसें, तभी बात बनेगी। चंद हजार रुपयों के लिए देश छोडऩे वाले, संस्थान छोडऩे वालों को तो हम तरक्कीपसंद मानते हैं, लेकिन कोई नेता अपनी बेहतरी के लिए दल छोड़ता है, साथी छोड़ता है तो उसे गाली देते हैं। दोनों तरह के अवसरवाद के नतीजे छोटे-बड़े हो सकते हैं, अर्थ तो नहीं बदलते! समाज में अंतिम पायदान तक जड़ें जमा चुके भ्रष्टाचार और अवसरवाद को हम भ्रष्टाचार और अवसरवाद मानना ही नहीं चाहते। जब मानते ही नहीं तो उस पर भला कोई हंगामा क्यों करेगा, उसे रोकने के उपाय क्यों करेगा? रोकने के उपाय नहीं होंगे तो ये फले-फूलेंगे। फल-फूलकर ये जब बड़े नतीजे देते हैं तो हमें दिक्कत होती है। इतना तो चलता है...न जाने कब ..सब चलता है, में बदल जाए!
सीधी सी बात है, नेताओं के अवसरवाद और भ्रष्टाचार पर रोकर कर्तव्य को पूरा हुआ मान लेने से काम नहीं चलेगा। कमर इस बात के लिए भी कसें कि जहां इसके बीज डाले जाते हैं, वहां भी पहरेदारी हो। अन्यथा दूसरा सहज रास्ता यह है कि जिस तरह हमने समाज में फैले कथित छोटे- छोटे भ्रष्टाचार को सहज मान लिया है, उसी तरह बड़े पैमाने पर होने वाले बड़े भ्रष्टाचार को स्वीकार कर लें। जाहिर है, दूसरा रास्ता खतरनाक है। बताने की जरूरत नहीं कि बेहतर लोकतंत्र के लिए बेहतर नागरिक भी चाहिए। लेकिन एक नागरिक के रूप में हर कोई...हम नहीं बदलेंगे, का झंडा बुलंद किए हुए है और उम्मीद करते हैं कि हमारे नेता साफ-सुथरे और हमारी चिंता करने वाले हों। हम खुद पान खाकर आफिस और घर की दीवारों पर थूकेंगे लेकिन कल्पना करेंगे सजे-संवरे देश और शहर की। अपना कूड़ा सड़क और पार्क के किनारे फेंकेंगे और गंदगी की समस्या के लिए अधिकारियों को कोसेंगे।
आपका नेतृत्व करने वाले ये लोग उसी समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं, जहां सरकारी दफ्तरों में एक फाइल को कर्मचारी और अधिकारी महीनों लटकाते हैं। वे लोग आप जैसे लोगों के बीच से ही हैं, जो इन दफ्तरों में जाकर घूस देकर अपना काम करवा आते हैं और उसे गलत भी नहीं मानते। ज्यादा हुआ तो घर आकर कर्मचारियों-अधिकारियों को बुरा-भला कहकर गुस्सा निकाल लिया। बात फिर वहीं है। सिर्फ इतने से काम नहीं चलेगा। बेहतर नेतृत्व और बेहतर देश चाहते हैं तो बदलना खुद को भी होगा। इसके लिए अपने आप को तैयार करें।
रविवार, 16 अगस्त 2009
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8 टिप्पणियां:
तमाम बातों के बावजूद देश को इस हाल में पहुंचाने वाले, एक गलत पद्धति से देश का कणॆधार बन बैठे लोगों को माफ नहीं किया जा सकता।
सही है, जनता का राज है तो गड़बड़ी के लिए जनता ही दोषी है। जनता क्या करे, इसके लिए यदि आप सिलसिलेवार बता सकते हैं तो बताइए। वैसे कौशल जी को बधाई कि उन्होंने कंकड़ ही सही फेंककर तालाब में लहरें तो पैदा कर ही दी। आप दोनों को मेरी ओर से बधाई।
सिर्फ पब्लिक पर दोषारोपण करने से कुछ नहीं होगा पुरुषोत्तम जी, इसके लिए बड़े आंदोलन और कड़े कानून की जरूरत होगी।
पुरुषोत्तम जी, साफ-साफ लिखिए कि आप क्या कहना चाहते हैं। पब्लिक पहले से ही उलझी हुई है, इसे और मत उलझाइए। क्या हो रहा है यह सबको मालूम है, क्या होना चाहिए यह बताइए। प्लीज।
पुरुषोत्तम जी, आप अपने ब्लाग पर बहुत दिनों के बाद आये हैं। अच्छा लगा। अब यह सिलसिला जारी रखिएगा।
एक आम आदमी रफ्ता-रफ्ता खुद को कैसे बदले कि आजादी का सही स्वाद उसे मिल सके, यह बताइए श्रीमान्। आपसे कुछ और विशेष की आशा है। फिलहाल आपको और कौशल जी दोनों को मेरी शुभकामनाए। आप दोनों ने एक सही मुद्दे पर लिखना शुरू किया है। कौशल जी के शब्दों में कहूं तो तबीयत से उछाला गया यह पत्थर सुराख तो जरूर करेगा।
bahut achcha or sachcha likha hai...bhadhaaee
भाई आपकी बात तो बिलकुल सही है. हम हमेशा आत्ममंथन के बजाय दूसरों को ही कोसते हैं और मुह ढक कर सो जाते हैं. लेकिन करें क्या! सच तो यह है की हम कुछ करने के बजाय यह सोचने में ज्यादा समय बिता देते हैं की लोग क्या कहेंगे! आइये हम कुछ नया सोचते नहीं करते हैं! हमें विश्वास है की ज्यादा न सही तो कुछ लोग तो हमें सराहेंगे ही! और न भी सराहे तो क्या हम खुद तो संतुष्ट होंगे न! हमें आशा है की हम होंगे कामयाब!
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