आजादी के सिलसिले में एक बात बहुत गौर करने वाली है। वह यह कि चाहे मुगलों का शासन चल रहा था, चाहे अंग्रेजों का, हिन्दुस्तान में आबादी का एक बड़ा हिस्सा न तो गुलामी का दंश झेल रहा था, न ही वह खुद को गुलाम मानता था। उल्टे उनकी तो मौज थी। मुगलों-अंग्रेजों द्वारा दिये गये अधिकारों पर ऐंठ रहा वह तबका तहसीलदार, नवाब , जमींदार, रायसाहब, रायबहादुर आदि का तमगा लेकर अपने ही भाई-बंधुओं पर अत्याचार का कोड़ा भांजा करता था, उनसे लगान वसूलता था और नहीं देने पर उनके लहू बहाताथा। हर कौम, हर कस्बा इसमें शामिल था। उन्हें आज हम भले गद्दार कह लें, मगर आजादी के बाद भी स्थिति उससे इतर नहीं है। हुआ क्या? गुलाम भारत में जिस तरह एक बड़ा तबका खुद को गुलाम नहीं समझता था, उसी तरह आजाद भारत में भी बड़ा तबका खुद को आजाद नहीं समझता है।आजादी के ६२ वर्षों के बाद भी उस तबके के पास कुछ भी नहीं है। जमीन- जायदाद की तो बात छोड़िए दो जून का अनाज भी उसके पास नहीं है। उनकी सांसें चलती रहें, इसके लिए देश के बड़े हिस्से में सिर्फ उनके लिए राहत बांटकर हमारे तख्तोताज उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटा करते हैं। हक की बात उठाने की तो वह तबका सोचा भी नहीं करता। हां, जमींदारों, नेताओं, अफसरों की खातिरदारी करना वह आज भी अपनी शान समझता है। ऐसा इसलिए कि उससे ताबीदारी करने वाला तबका मौजूद है, उसकी हैसियत दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही है।
एक और बात यह है कि गुलामी के दिनों में आजादी के लिए संघर्ष करने वालों की संख्या भी यहां गिनी-चुनी ही थी। आपको यहां गांव के गांव मिल जायेंगे, जहां से शहादत की एक भी दास्तां आप जुबां पर नहीं चढ़ा पायेंगे। वियतनाम का इतिहास पढ़ रहा था। अमेरिका से आजादी के लिए जब वहां के लोग संघर्ष कर रहे थे तो उन्हें एक बड़ी शक्ति से छापामार लड़ाई लड़नी पड़ रही थी। हर घर का युवक स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा ले रहा था। मोर्चे पर ठंडक से बचने के लिए हर घर से खिड़की - दरवाजे तक उखाड़कर लकड़ियां भेजी जा रही थीं। आज वियतनाम अपनी आजादी का मतलब समझता है और अमेरिका की हिम्मत नहीं है कि उसकी ओर टेढ़ी नजर से भी देख सके। उल्टे वहां का राष्ट्राध्यक्ष जब-तब महाशक्ति को खुलेआम चैलेंज ठोकता है। हमारे यहां थोड़ी उल्टी स्थिति है। जब आपके देश का बड़ा हिस्सा जानता ही नहीं कि आजादी किन मूल्यों पर पायी गयी, गुलामी का मतलब क्या था तो वह उन मूल्यों को बचाने के लिए संघर्ष क्यों करे?
क्या त्रासदी थी, जब देश आजाद हो रहा था तो गद्दी पर काबिज होने के लिए स्वार्थ की बड़ी लड़ाई में भाई-भाई देश के कलेजे का टुकड़ा कर चुके थे। वह भी कौमी जज्बातों को सामने रखकर। जब नये और आजाद भारत का सपना देखा जाना था, तभी धरती पर सीमा रेखा खींच दी गयी और अदावत के अंतहीन सिलसिले का बीजारोपण कर दिया गया। और आज हम जिन नेताओं की पूजा कर रहे हैं, जिनके नाम पर सीना चौड़ा कर दुनिया को आजादी का मतलब समझा रहे हैं, यह सब उनकी मौजूदगी और उनकी निगहबानी में हुआ। वे नहीं रोक पाये यह सब कुछ। क्या मतलब था आजादी का? क्या इसका मतलब भाइयों द्वारा भाइयों का रक्तपातनहीं था? क्या इसका मतलब बंटवारा नहीं था? क्या इसका मतलब कौमी अदावत नहीं थी? क्या इसका मतलब गद्दी पर येन-केन-प्रकारेण काबिज होने की परिघटनाओं का सूत्रपात नहीं था? गांधी जी ने तो कहा था कि भारत के आजाद होते कांग्रेस का उद्देश्य पूरा हो गया, अब इस पार्टी को भंग कर देना चाहिए। क्यों नहीं मानी गयी उनकी बात? आज कांग्रेस वजूद में क्यों है? और है भी तो वह किस कांग्रेस के उद्देश्यों का पालन कर रही है? फिलहाल इतना ही। आजादी के सच्चे अर्थों की तलाश करती रपटों का सिलसिला अभी जारी रहेगा। धन्यवाद।
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5 टिप्पणियां:
लिखावट में आक्रोश बढ़ता जा रहा है। जरा संभलकर।
आपके लेख को पढ़कर मजा आता है। आप विस्तृत पटल पर लिखते हैं। इसकी खासियत यह भी होती है कि जहां आप इसे खत्म करते हैं, वहां से आगे पढ़ने की ललक बनी रहती है। एक और सुंदर आलेख के लिए धन्यवाद।
आप जो कहना चाहते हैं, वह अब धीरे-धीरे स्पष्ट हो रहा है। अगली पोस्ट का इंतजार रहेगा। और जरा जल्दी रहे। आप रुक जाते हैं।
आक्रोश नहीं देवेन्द्र जी, मुझे लगता है यही सच्चाई है। आजादी के नाम पर इस देश में गुलामी के दिनों से भी बदतर शासन व्यवस्था है और यह कैसे पनप गयी, इस पर आगे के आलेखों में स्पष्ट करूंगा। फिलहाल ब्रजेश और चंद्र जी को त्वरित टिप्पणी देने के लिए बधाई। वर्ना आजकल ब्लाग पर टिप्पणियां देने में कंजूसी बरती जाने लगी है। जबकि, इस तरह के आलेख लगातार मिलने वाली टिप्पणियों से ही आगे बढ़ती है।
Ek eemaandaar vivechan.
वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को उन्नति पथ पर ले जाएं।
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