सोमवार, 17 अगस्त 2009
संबोधन से उलझा आजादी का अर्थ
इसके पहले कि मैं आजादी का अर्थ तलाशती रपट का सिलसिला आगे बढ़ाऊं, पुरुषोत्तम जी को धन्यवाद दे लूं कि उन्होंने इस सिलसिले में अपने आलेख से चार चांद लगा दिये हैं। पिछली पोस्ट में मैंने आजादी के सच्चे अर्थ की तलाश में कुछ सरकारी संस्थानों की सैर पर अपने साथ चलने वालों को चलने का आग्रह किया था। हमने आजाद भारत के थानों और पुलिस व्यवस्था की हालत देखी। आगे चलें, इसके पहले हम जिक्र करना चाहेंगे पंद्रह अगस्त के दिन लाल किले के प्राचीर से अपने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के एक और नीरस भरे संबोधन का। आजादी का अर्थ तलाशते देशवासियों के समक्ष उम्मीद के मुताबिक इस बार भी प्रधानमंत्री ने उबाऊ और नीरस भाषण ही परोसा। पिछले पांच वर्षों से वे ऐसा ही भाषण करते आ रहे हैं। यह उनका छठा मौका था। प्रधानमंत्री ने सूखे से उत्पन्न संकट की चर्चा की और खौफ का पर्याय बने स्वाइन फ्लू के खतरे को कमतर करके बताया। देश जानता है कि कृषि क्षेत्र की समस्याओं के समाधान के लिए आज तक बुनियादी कदम नहीं उठाये गये हैं और यही हालत सेहत में सुधार को लेकर भी है। देश के स्वास्थ्य ढांचे में सुधार के कोई लक्षण नहीं दिख रहे हैं। लाल किले के प्राचीर से प्रधानमंत्रियों के संबोधन में जो एकरसता और रस्म अदायगी का भाव समावेशित हो चुका है, इस बार भी प्रधानमंत्री ने उसी का प्रदर्शन किया। देश की समस्याओं के समाधान की जो प्रतिबद्धता इस बार मनमोहन सिंह ने व्यक्त की है, वह वे पिछले पांच वर्षों से करते आ रहे हैं। सरकार हमेशा कहती है कि आतंकवाद और नक्सलवाद को जड़ से उखाडऩे के लिए हर कदम उठाये जायेंगे। पर, इस पर कैसा अंकुश लग पाया है, यह क्या किसी से छिपा है? मुंबई हमले के षड्यंत्रकारी खुलेआम घूम रहे हैं और पाकिस्तान से वार्ता के संदर्भ में आतंकवाद पर रोक लगाने की शर्त हटा दी गयी है। मनमोहन सिंह लच्छेदार भाषण देने के लिए वैसे भी नहीं जाने जाते और न ही उनकी ओर से ऐसा भाषण दिया जाना आवश्यक ही समझा जाता है। पर, एक कुशल प्रशासक के नाते उनसे देश को जो उम्मीदें हैं, कम से कम उस पर खरा उतरने की उन्हें कोशिश तो करनी ही चाहिए। इस कोशिश से भी उनका भाषण दूर ही दिखा। अपने भाषण में उन्होंने कुछ आश्वासन दिये। अब इस तरह के आश्वासन का क्या महत्व रह गया है कि सरकार महिला आरक्षण विधेयक पारित कराने को प्रतिबद्ध है? राष्ट्रपति के बाद प्रधानमंत्री ने भी कहा कि जब तक हमारा सरकारी तंत्र भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं होता, योजनाओं का फायदा जनता तक नहीं पहुंच पायेगा। पर, जब प्रशासनिक सुधार आयोग की रपट पर अमल की बात आयी तो इस मामले में भी आश्वासन ही मिला। अब इसका क्या मतलब है कि कोई प्रधानमंत्री यह कहे कि ऐसा-ऐसा करने की जरूरत है या यह-यह किया जाना चाहिए? जो करने की जरूरत है या जो किया जाना चाहिए, उसे लागू क्यों नहीं कराया जाता? किसके भरोसे सारा कुछ छोड़कर खुद की मुक्ति का किनारा खोजा जा रहा है? और नौ फीसदी विकास दर पाने का लालीपॉप, हासिल कर दिखाइए प्रधानमंत्री जी, रोका किसने है? लोग तो नब्बे रुपये प्रति किलो दाल और चालीस रुपये प्रति किलो चीनी खरीद रहे हैं, खरीदते रहेंगे। जनता से तो पूछते नहीं, आप जब मर्जी पेट्रोल-डीजल का दाम घटाइए-बढ़ाइए, जिसे जरूरत होगी, खरीदेगा ही। यह ठीक है कि इस बार के चुनाव में जनता ने आप पर भरोसा दिखाया और कांग्रेस फिर से गद्दी पाने में सफल रही, पर आजादी का मतलब आपके भाषणों तक जाकर भी कुछ ठीक से सही अर्थों में परिभाषित नहीं हो रही प्रधानमंत्री जी। लगातार छठी बार जनता को निराशा ही मिली। आजाद भारत के लोगों को एक आजाद रास्ता और एक आजाद मंजिल चाहिए। वह कब मिलेगी और कौन उपलब्ध करायेगा, इसका जवाब इस बार के स्वतंत्रता दिवस पर भी आपके भाषण से नहीं मिल रहा। आजादी का अर्थ तलाशती रपट का सिलसिला अभी जारी रहेगा। धन्यवाद।
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6 टिप्पणियां:
कौशल जी, मुझे लगता है कि आपकी ये बातें भी उसी प्रवृत्ति का नतीजा है, जिसमें हम सारी उम्मीदें दूसरों से लगाए बैठे रहते हैं। भले ही वह सरकार ही क्यों न हो।
कौशल जी आपने बहुत अच्छा लिखा है। हालांकि जनता भी अपनी ओर से पहल करे। नहीं तो गुजरा हुआ वक्त लौटकर नहीं आता।
कौशल जी, नेताओं से क्या आशा?
आप बिल्कुल सही प्रयास कर रहे हैं। लेकिन पुरुषोत्तम जी बार-बार पब्लिक को बदलने की सलाह क्यों दे रहे हैं?
सिलसिला अब रोचक हुआ है। अगली पोस्ट का बेसब्री से इंतजार है।
वाह क्या लिखा है। ठीक ही कहा है, अब तो प्रधानमंत्री भी झांसा देने में पीछे नहीं रह रहे। इस देश का क्या होगा, चिंता इसी बात की है।
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