शनिवार, 4 अप्रैल 2009

सीन गंभीर, समझने की जरूरत

विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक प्रणाली वाले देश में फिर लोकतंत्र की परीक्षा की घड़ी आ चुकी है। आजादी प्राप्ति के बाद पंद्रहवीं बार। बड़े-बड़े वादों, मजबूत लगने वाले इरादों , नये गानों और मदहोश कर देने वाले तरानों के साथ चुनावी पहलवान तो ताल ठोक ही रहे हैं, बरसाती मेढक की तरह कुछ वैसे लोग भी समाज के पैरोकार बने टर्राने लगे हैं, जिनका किसी से कभी कोई न तो नाता रहा, न सरोकार दिखा। पूरा माहौल गफलत का ही बना दिख रहा है। हर कोई एक दूसरे को समझाने की समझदारी दिखा रहा है। अब तक नाच रहे थे, गा रहे थे, तमाशा बने सरेआम तमाशा दिखा रहे थे, पर अभी समझा रहे हैं। शिकारी आयेगा, जाल बिछायेगा, दाना डालेगा, लोभ से उसमें फंसना नहीं। सीन गंभीर है। शिकारी शिकार को फंसने से बचने की सलाह देने लगा है। जाल गहरा, साजिश गहरी नहीं तो और क्या है? अभी चार साल पहले बिहार में विधानसभा चुनाव हुए थे। रामविलास पासवान पूरे सूबे में घूम-घूम कर लालू को उखाड़ फेंकने का आह्वान कर रहे थे और सरेआम सत्ता की चाबी नीतीश कुमार को थमायी थी। अब कोई भी रामविलास पासवान को लालू के साथ गलबिहयां करते हंसते-मुस्कुराते बड़े-बड़े फोटुओं में देख सकता है। कांग्रेस की सरकार बचाने के लिए सबकुछ कर चुकने वाले समाजवादी पार्टी के कर्ता-धर्ता मुलायम सिंह यादव स्वतंत्र हो गये हैं और लालू-रामविलास के साथ त्रिवेणी बना चुके हैं। कांग्रेस न होती तो लालू का क्या होता, यह तो वे ही बेहतर बता सकते हैं, पर चुनाव में सतह पर आ चुकी तथाकथित वजूद की लड़ाई के जेरेसाया यह तालमेल ध्वस्त हो चुका है और कांग्रेस त्रिवेणी के खिलाफ अपना पहलवान मैदान में उतार रही है। ऐसे में बरसाती मेढक अपनी टर्र-टर्र से लोगों को समझाने की कोशिश कर रहे हैं ...लोभ में उसमें फंसना नहीं। फंसें नहीं तो क्या करें? बगावत के सुरों के बीच आखिरकार पस्ती का आगाज भी बुलंद है और उसकी आवाज इस बगावत के साथ ही सुनी जा सकती है - हम अलग-अलग लड़ रहे हैं, पर चुनाव के बाद हम मिलजुलकर सरकार बनाएंगे। वाह भई वाह। पब्लिक क्या है? और जो नहीं है, आप तो उसे वही समझते हैं। मुश्किल घड़ी है, कम से कम बिहार - यूपी - झारखंड में सीन गंभीर ही है। सवाल चयन का नहीं, सब्र की परीक्षा का उठ खड़ा हुआ है। ऐसे में मुझे किसी को समझाने का कम, खुद समझने का मौका ज्यादा नजर आता है। जी हां, एक-एक पब्लिक को खुद को समझना होगा। समझदारी इस बात की कि आखिर पूरे परिदृश्य को वे किस रूप में देखते हैं और किस रूप में ढालना चाहते हैं। समझना यह होगा कि चूकने की कीमत है फिर पांच साल। परमाणु संधि वाले मुद्दे पर अभी आपने देखा ही है कि किस तरह से पब्लिक से उसके फैसले का अधिकार छीन लिया गया। संसद में नोट लहराते हैं तो लहरायें, अब किसे फिक्र है?? चुनाव आया है तो यह परीक्षा की घड़ी सिर्फ उनके लिए ही नहीं है , जो मैदान में लहरा रहे हैं और भोंपू बजा रहे हैं, उनके लिए भी है, जो जज हैं, जिन्हें फैसला करना है। चुनाव को लेकर चर्चा अभी जारी रहेगी।

3 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

सीन तो वाकई गंभीर है.

राज भाटिय़ा ने कहा…

लोगो को इतनी अकल होती तो बात ही क्या थी, अगर सभी सही ओर सोच कर, देख कर अपना वोट दे तो बात अब भी बन सकती है.
सच मै शिकारी बहुत चलाक है, ओर शिकार भोला भाला.
धन्यवाद

पुरुषोत्तम कुमार ने कहा…

शुक्ला जी, सवाल यह भी है कि नेताओं की अवसरवादिता अब कोई मुद्दा है क्या? मुझे तो लगता है कि नेता होने की पहली शतॆ ही है अवसरवादी होना? ऐसे में अवसरवादिता की बात की जाए तो केवल लालू-पासवान ही क्यों? अवसरवादिता पूरे समाज में अपने दमखम के साथ मौजूद है। हम-आप अपने अगले कदम से पहले नफा-नुकसान का आकलन नहीं करते क्या? हां, इससे सहमत हुआ जा सकता है कि नेताओं की अवसरवादिता से नुकसान पूरे समाज और देश को होता है, इसलिए इनकी अवसरवादिता पर टिप्पणी और चरचा करने के अधिकारी आप हैं।
बात फिर वहीं आती है कि लालू-पासवान ही क्यों? यह सवाल तो कांग्रेस-भाजपा से लेकर तमाम छोटे-बड़े दलों के लिए है। कभी माया की सरकार को समथॆन देने वाली भाजपा आज उसे जी भर कर कोस रही है तो आप उसे क्या कहेंगे। पासवान के समथॆन से चल रही सरकार की अगुवाई कर रही कांग्रेस रामविलास के खिलाफ उम्मीदवार खड़ाकर उन्हें कोसती है तो इसे अवसरवादिता की बजाय आज की राजनीति की जरूरत ही क्यों न मान लें।
और फिर सब तो यही कर रहे हैं। ममता, जयललिता, फारूक, चंद्रबाबू, नवीन पटनायक कल तक भाजपा के साथ थे, अब नहीं है। नीति और सिद्धांतों का ढिंढोरा पीटने वाले वामपंथी अब कांग्रेस पर तमाम तोहमतें लगाते हैं तो क्या यह भरोसा होता है कि ये कभी सरकार के साथी थे? सीधे-सीधे यही कहा जाए तो भी क्या बुरा है कि वैसे राजनेता और दल तो खोजने पर ही मिलेंगे जो वक्त और जरूरत के मुताबिक साथी न बदल रहे हों। वरना, वाकई यह कौन सोचता था कि लालू-मुलायम-पासवान एक साथ खड़े नजर आएंगे।