लोकतंत्र जीवित रहे, सही और सच्चे रास्ते पर चलता रहे, एक सच्चा देशवासी यही तो चाहेगा। ऐसा नहीं होने पर, या इस बाबत कुछ नहीं कर पाने पर आदमी के अंदर जो होता है, उसकी तस्वीर यहां आदरणीय पुरुषोत्तम जी की टिप्पणियों से साफ होती है। लोकतंत्र के महापर्व को लेकर बजते बिगुल के बीच सीन गंभीर, समझने की जरूरत पर बल देते हुए जो इशारा किया गया था, उसे पढ़ने के बाद उन्होंने जो जिज्ञासा प्रकट की है, उसे हूबहू यहां पेश किया जा रहा है। उनकी बातों में जो सवाल छिपे हैं, वह गंभीर सीन को समझने की ओर ही मजबूत इशारा कर रहे हैं। पुरुषोत्तम जी ने जो लिखा -
"शुक्ला जी, सवाल यह भी है कि नेताओं की अवसरवादिता अब कोई मुद्दा है क्या? मुझे तो लगता है कि नेता होने की पहली शतॆ ही है अवसरवादी होना? ऐसे में अवसरवादिता की बात की जाए तो केवल लालू-पासवान ही क्यों? अवसरवादिता पूरे समाज में अपने दमखम के साथ मौजूद है। हम-आप अपने अगले कदम से पहले नफा-नुकसान का आकलन नहीं करते क्या? हां, इससे सहमत हुआ जा सकता है कि नेताओं की अवसरवादिता से नुकसान पूरे समाज और देश को होता है, इसलिए इनकी अवसरवादिता पर टिप्पणी और चरचा करने के अधिकारी आप हैं। बात फिर वहीं आती है कि लालू-पासवान ही क्यों? यह सवाल तो कांग्रेस-भाजपा से लेकर तमाम छोटे-बड़े दलों के लिए है। कभी माया की सरकार को समथॆन देने वाली भाजपा आज उसे जी भर कर कोस रही है तो आप उसे क्या कहेंगे। पासवान के समथॆन से चल रही सरकार की अगुवाई कर रही कांग्रेस रामविलास के खिलाफ उम्मीदवार खड़ाकर उन्हें कोसती है तो इसे अवसरवादिता की बजाय आज की राजनीति की जरूरत ही क्यों न मान लें। और फिर सब तो यही कर रहे हैं। ममता, जयललिता, फारूक, चंद्रबाबू, नवीन पटनायक कल तक भाजपा के साथ थे, अब नहीं है। नीति और सिद्धांतों का ढिंढोरा पीटने वाले वामपंथी अब कांग्रेस पर तमाम तोहमतें लगाते हैं तो क्या यह भरोसा होता है कि ये कभी सरकार के साथी थे? सीधे-सीधे यही कहा जाए तो भी क्या बुरा है कि वैसे राजनेता और दल तो खोजने पर ही मिलेंगे जो वक्त और जरूरत के मुताबिक साथी न बदल रहे हों। वरना, वाकई यह कौन सोचता था कि लालू-मुलायम-पासवान एक साथ खड़े नजर आएंगे।"
अब सवाल यह है कि अर्थ तंत्र की आग में हर दिन भस्म होते जा रहे या भस्म किये जा रहे मूल्यों और अवधारणाओं के बीच देश की आम व भोली-भाली जनता क्या करे? चुनाव का मौका है, चुनना तो पड़ेगा। लेकिन, चुनाव समझदारी से किया जाय, जरूरत इसकी है। पांच साल के बाद मौका आया है तो इस मौके को समझना ही पड़ेगा। और मौके को समझने के लिए आपके पास होने चाहिए सिर्फ दस रुपये। कोई इतना तो कर सकता है कि उसके सामने जो पहलवान ताल ठोंक रहे हैं, उसे ठोंक बजा लिया जाय। उनमें से किसी का चयन करने से पहले उनके बारे में सबकुछ पता कर लिया जाय। सरकारी सुविधाओं के अनुसार अब आम जनता के पास सूचना का यह अधिकार है कि वह अपने जिले के चुनाव अधिकारी के पास दस रुपये का ड्राफ्ट जमा कर अपने प्रत्याशी के बारे में वह संपूर्ण जानकारी हासिल कर सकता है, जो हलफनामे में पेश किया गया है। इतना तो कोई भी मानेगा कि जान-समझ कर किये गये काम में गल्तियों की संभावना कम रहती है या फिर कम से कम यह मलाल तो नहीं होता कि जो मौका था, उसकी नजाकत को नहीं समझ पाये। ग्रेट इंडियन तमाशे यानी महासंग्राम यानी आम चुनाव को लेकर अभी चर्चा जारी रहेगी। फिलहाल इतना ही। पुरुषोत्तम जी को साधुवाद कि उन्होंने चर्चा आगे बढ़ायी।
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