मंगलवार, 3 मार्च 2009
जंगल राज के नियम भी ध्वस्त हो गये थे
बिहार से लालू-राबड़ी राज का खात्मा क्योंकर जरूरी हो गया था, यह तब पटना हाईकोर्ट द्वारा निरंतर दी जा रही टिप्पणियों के आकलन से साफ-साफ पता चलता है। गुजरते लम्हों ने भले उन टिप्पणियों की यादें धूमिल कर दी हों, पर उसके अर्थ आज भी इतिहास में सांसें ले रहे हैं। पटना उच्च न्यायालय की समय-समय पर दी गयी टिप्पणियों से साफ-साफ पता चलता था कि बिहार अनाथ हो चुका था और यहां उसकी देखरेख करने वाली सरकार की नितांत आवश्यकता थी। १४ जुलाई १९९७ को न्यायालय ने कहा कि राज्य में सरकार नाम की कोई चीज नहीं है। राज्य सरकार अपने कर्तव्य के निर्वहन की स्थिति में नहीं है। यहां की जनता जंगलराज में रहने को विवश है। इसके ठीक तीन रोज बाद १७ जुलाई १९९७ को कोर्ट की टिप्पणी आयी कि राज्य में पूरी तरह अराजकता है। चूंकि यहां न तो कोई काम करता है औऱ न ही कोई अधिकारी अपने कर्तव्य निर्वहन के प्रति रुचि रखता है। ५ अगस्त १९९७ को कोर्ट ने कहा कि जंगल राज में भी कुछ नियम होते हैं, लेकिन बिहार में तो इसका भी पालन नहीं हो रहा है। सड़कों की मरम्मत और सफाई कार्य भी न्यायालय के आदेश के बाद ही किये जाते हैं। ६ अगस्त १९९७ को उच्च न्यायालय ने फिर माना कि राज्य प्रशासन अपने कर्तव्यों का निर्वाह नहीं कर पा रहा है। १३ अगस्त १९९७ को न्यायालय ने टिप्पणी दी कि बिहार एक ऐसा राज्य है, जहां सड़कें नहीं हैं। १३ जनवरी १९९८ को कोर्ट ने कहा कि बिहार पुलिस के चरित्र से सभी वाकिफ हैं। ९ फरवरी १९९८ को कोर्ट की टिप्पणी थी कि विधि व्यवस्था की खराब हालत की जानकारी के बावजूद प्रशासन लापरवाह है। ९ मार्च १९९८ को कोर्ट ने कहा कि राज्य के अधिकतर अधिकारी भ्रष्ट हैं। मुख्य सचिव के आश्वासन के बावजूद आदेशों का अनुपालन नहीं किया जा रहा है। राज्य में तदर्थवाद जारी है, स्थिति नियंत्रण से बाहर है। १० अप्रैल १९९८ को कोर्ट ने कहा कि ऐसा लगता है कि प्रशासन तंत्र पूरी तरह ध्वस्त हो गया है। १६ अक्टूबर १९९८ को टिप्पणी आयी कि राज्य में संवैधानिक व्यवस्था पूरी तरह ठप हो गयी है। सांसद और विधायकों के अनुशंसा पत्र पर भी मुख्यमंत्री राबड़ी देवी अब सीधे आदेश नहीं देतीं। यह तो कुछ नमूने हैं। ऐसा कोई हफ्ता नहीं गुजरता था जब हाईकोर्ट की इस प्रकार की कोई टिप्पणी नहीं आती हो। उधर, प्रदेश में घोटालों की मानो बाढ़ आयी हुई थी। पशुपालन, मेधा, अलकतरा, अधिकाई व्यय, मस्टर रोल आदि घोटाले निश्चित रूप से पचा लिये गये थे। नौकरी से लेकर प्रोन्नति, वेतन, पेंशन व मुआवजा दिलाने तक और सड़क, पेयजल, सफाई, अतिक्रमण, नाला, ट्रैफिक जैसी सुविधाएं उपलब्ध कराने में भी कोर्ट की ही भूमिका महत्वपूर्ण हो गयी थी। दरअसल बिहार को कोर्ट ही चलाने लगा था। प्रभावित लोगों द्वारा कोर्ट के पास पहुंचने और उसके द्वारा दिये गये फैसलों की तादाद का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि १२ फरवरी १९९९ तक ( इसी रोज राबड़ी सरकार को भंग करते हुए प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू किया गया था) राज्य के विभिन्न विभाग अवमानना के करीब तीन हजार मामले झेल रहे थे। कुल मिलाकर स्थिति नाजुक थी। मामला बस इतना ही था कि लालू या राबड़ी देवी को किसी ने बिहार की सत्ता से बेदखल नहीं किया, खासकर जनता ने तो बिल्कुल नहीं। यह लोकतंत्र है और इसमें जनता सर्वोपरि है। इस व्यवस्था में राज्य को अपनी जागीर समझने वाले को बदल देने का उसके पास अधिकार है। और सबसे महत्वपूर्ण बात कि जनता किसी को बेदखल नहीं करती, अपना नया प्रतिनिधि चुनती है। नया प्रतिनिधि, जो उसके लिए काम कर सके, उसकी बातों पर ध्यान दे सके, जो व्यवस्था को बहाल कर सके और जो भरोसे लायक हो। इसमें कोई बेदखल हो जाता हो तो हो जाता हो। जनता ने लालू-राबड़ी को बेदखल नहीं किया, बस नीतीश कुमार को चुन लिया। अब यदि नीतीश भ्रष्ट हैं तो मामले सामने आने दीजिए, जनता फिर कोई अपना नेता चुन ही लेगी। यह जनतंत्र है औऱ इसमें ऐसा होना स्वाभाविक है।
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3 टिप्पणियां:
लालु फ़िर भी उम्मीद रकते है जीतने की, लेकिन क्यो बार बार ऎसे लोगो को चुनाव लडने के लिये इजाजत मिलती है, जो एक रावण से भी गया गुजरा हो....
धन्यवाद आप की बहुत सी पोस्ट पढी, ओर बिहार के बारे सही पता चला.
शुक्ला जी, जनता अब जाति के आधार पर वोट देने लगी है. कोर्ट की तमाम नकारात्मक टिप्पणियों के बावजूद लालू की पार्टी बिहार में दोबारा सत्ता में आई, यह इस बात का परिचायक है कि सामाजिक समीकरण (जनता) तब भी लालू के पक्ष में था. कोर्ट की टिप्पणियों के आपके जितने भी उदाहरण हैं, सभी सन २००० के पहले के हैं. बिहार में इसके बाद भी चुनाव हुए और लालू की पार्टी २००५ तक सत्ता में बनी रही. हाँ, इसके बाद Nitish कुमार की बिरादरी और राम विलास पासवान के समर्थक लालू के तिलिस्म से बहार निकल गए, जिसकी वजह से लालू से खार खाए लोगों को मौका मिल गया. कुर्मी और दलितों का अगर लालू से मोह भंग नहीं होता तो राबडी आज भी बिहार की मुख्यमंत्री होतीं. आपने लालू-राबडी राज की समीक्षा बहुत एकपक्षीय होकर की है. लालू की देन पर भी कभी गौर कीजिएगा, तो असली तस्वीर नजर आएगी. मेरे गाँव के कन्हाई साव ८० साल की उम्र में १९८८ में मर गए, लेकिन उन्होंने ताउम्र कभी बैलेट पेपर नहीं देखा, सामन्तियों ने कभी वोट डालने नहीं दिया. आज उनका पुत्र अपने मताधिकार का इस्तेमाल कर रहा है तो इसमें सौ फीसदी लालू का योगदान है. आपसे आग्रह है कि लालू राज की समीक्षा कभी आप कन्हाई साव के नजरिए से भी कीजिये, पत्रकारिता समग्र दृष्टि मांगती है.
तो ऐसा कहिए न अरविंद जी कि आप अभी इस चर्चा को जारी रखना चाहते हैं, फिर विधानसभा चुनाव के बाद राजद के नेतृत्व में सरकार कैसे बनी, कैसे चली, इसका राज फाश करवाना चाहते हैं। यह सिर्फ जातिवाद के तहत दिये जाने वाले वोट से संभव नहीं हो सका था। यह बड़ी और मतलबी राजनीतिक गठबंधन का प्रतिफल था। हालांकि, यह भी इतिहास को खंगालने जैसा ही होगा, पर आपकी बातें स्वीकार। शायद आपकी बातों का जवाब उस इतिहास को खंगालने में मिल जाये, जब आपको बताया जाय कि बिहार में राबड़ी सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन क्यों लगा और कैसे हटा?
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