शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009

राबड़ी राज - डेढ़ वर्षों में डेढ़ दर्जन नरसंहार

लालू प्रसाद यादव पशुपालन घोटाले में जेल चले गये और सींखचों के भीतर जाते-जाते वे जेल से शासन करने का ऐलान पूरा करते गये। जब वे यह दावा करते थे कि यदि जेल भी गये तो वहीं से बिहार पर शासन करेंगे तो लोग हैरान होते थे कि आखिर वे ऐसा किस कदर कर सकेंगे। लोकतंत्र की भले धज्जियां उड़ गयी हों, पर यह सच था कि घर में तब तक चूल्हा-चौकी संभालने वाली उनकी धर्मपत्नी राबड़ी देवी उनके जेल जाते ही मुख्यमंत्री के पद पर आसीन हो गयीं। यह २५ जुलाई १९९७ का दिन था, जब उन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। इस सरकार का कार्यकाल डेढ़ वर्षों का रहा, क्योंकि तब की केन्द्र की भाजपा नीत सरकार की हिम्मत की बदौलत १२ फरवरी १९९९ को सूबे में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया। क्यों? क्योंकि राबड़ी राज के महज डेढ़ वर्ष में बिहार ने डेढ़ दर्जन नरसंहार देखे, जिनमें कम से कम पांच सौ या इससे अधिक लोग मारे गये। नक्सली कहर का तो आलम यह था कि राष्ट्रपति शासन लागू किये जाने के ४८ घंटों के भीतर १४ फरवरी १९९९ को माले ने जहानाबाद में सात लोगों को मार डाला। इतनी बदतर स्थिति तो कभी आतंकियों से अटे पड़े प्रदेश पंजाब की भी नहीं थी। जो आंकड़े उपलब्ध हैं, उनसे यही साबित होता है कि लूट, अपहरण, बलात्कार, नरसंहार, भ्रष्टाचार व कानून व्यवस्था की बिगड़ती स्थिति ही लालू-राबड़ी राज की पहचान थी। विकास यहां कल्पना बन गया था और अपराधों के ग्राफ ने हर चेहरे को दहशतजदा बना डाला था। यहां विधायकों के खून होने लगे थे। हेमंत शाही, अशोक सिंह, देवेन्द्र दुबे, बृजबिहारी प्रसाद तथा अजीत सरकार जैसे विधायकों की नृशंसतापूर्वक हत्याओं ने साबित कर दिया था कि बिहार में कोई सुरक्षित नहीं है। १९९० से १९९९ तक के पुलिस रिकार्ड अनुसार यहां अपराध के साढ़े आठ लाख से भी अधिक मामले दर्ज किये गये थे, जिनमें हत्या के ३३६२८, बलात्कार के ७३१० तथा अपहरण के १५६१२ मामले थे (जबकि अपराध हुए इससे कहीं अधिक थे। पता चलता है कि इस दौरान साठ हजार से अधिक लोगों की जानें गयीं, जिनमें करीब पांच सौ राजनैतिक कार्यकर्ता थे।)। ५५ में तीस जिलों में नक्सलियों की समांतर सरकार चल रही थी। आर्थिक स्थिति को लेकर राज्य दिवालियेपन के कगार पर था। परिसंपत्तियों से ज्यादा राज्य सरकार पर कर्ज हो चुका था। नियंत्रक एवं महालेखाकार परीक्षक ने भी इस बात पर सरकार की बखिया उधेड़ी थी। राज्य सरकार का हर मंत्री सीबीआई तथा आयकर विभाग की चपेट में दिखने लगा था। यहां तक कि मुख्यमंत्री आवास तक पर छापा पड़ चुका था। राज्य सरकार की चौतरफी विफलता से बड़ी संख्या में लोग न्यायालय की शरण में जाने लगे थे। अतिक्रमण हटाने से लेकर वेतन भुगतान, नियुक्ति से लेकर प्रोन्नति तक के मामले अदालत में पहुंचने लगे। सफाई, अस्पताल, निर्माण, सड़क, पानी, बिजली एवं स्कूल उपलब्ध कराने सरीखे बुनियादी मुद्दों पर न्यायालय को निर्देश देने पड़ रहे थे। देश का सबसे पिछड़ा राज्य बनकर रह गया था बिहार। लालू खुद को शेरे बिहार कहलाना पसंद करने लगे थे। पूरे बिहार को उन्होंने जंगल घोषित कर रखा था और किसी दूसरे शेर को न घुसने देने की बार-बार ताकीद कर रहे थे। इसी बीच निरंतर आ रही थी पटना हाईकोर्ट की टिप्पणियां, जो सूबे की नक्कारी सरकार की पोल खोल रही थीं। बिहार की हालत ऐसी हो गयी थी कि अगर कोर्ट नहीं होता तो क्या होता, कहना मुश्किल था।

फिलहाल इतना ही। लालू के पटना में २२ फरवरी १९९० को रविदासों के समक्ष भोलेपन से पूछे गये सवाल ( सवाल था-आखिर क्यों उन्हें बिहार की सत्ता से बेदखल किया गया) के जवाबों की तलाश में इतिहास को खंगालने का सिलसिला जारी रहेगा। अगली और आखिरी किस्त में पढ़िए -जंगल राज के भी नियम ध्वस्त हो गये थे।

8 टिप्‍पणियां:

उपाध्यायजी(Upadhyayjee) ने कहा…

अक्षरशः सत्य लिखा है आपने | बिहार के उन दिनों को याद कर रुंगते खड़े हो जाते हैं | लेकिन एक बात मुझे बताइए | शुरूआती दिनों में नीतिश कुमार और राम विलास पासवान भी लालू के साथ ही थे | आपको क्या लगता है की एक ही स्कूल के निकले ये विद्यार्थी जो अभी दावा कर रहे हैं वो स्थाई रूप है इनका या अस्थायी? भाई आपने उन मनहुश दिनों को याद दिला दिया | लोगो के जान की कीमत गाजर मुली से कम नहीं था | इन सबो के अन्दर नफ़रत इतनी थी की कुछ जाती विशेष के ५० लोगो के कत्ले आम के बाद में भी उन गावों का दौरा नहीं करते थे | बिहार के सबसे बड़े पद पर आसीन होकर नफ़रत के ऐसे ऐसे विष उगलते थे की मानो इनका वश चले थे ये खुद ही हाथ में गडासा लेकर काटने चले जाएँ.

पुरुषोत्तम कुमार ने कहा…

बहुत अच्छा लिखा है आपने। बेहतर प्रस्तुति के लिए आपको बधाई। आपके अगले लेख का इंतजार है।

राज भाटिय़ा ने कहा…

तो फ़िर बिहार के लोग क्यो इन्हे बार बार चुनते है??
दिल दहल गया इस लालू के बारे पढ कर,
धन्यवाद

अरविन्द शर्मा ने कहा…

आपकी पोस्ट पर सारी टिप्पणियाँ सकारात्मक है. किसी पाठक ने आलोचना नहीं की है. क्या आपके लेखों में किन्तु-परन्तु के लिए बाकई कोई जगह नहीं रहती है ? मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि मेरी समझ छोटी है या लोग आँख बंद कर आपके लिए ताली पीट रहे हैं?

Kaushal Kishore Shukla ने कहा…

हां अरविंद जी, मेरे लेखों में किन्तु-परन्तु की अभी गुंजाइश नहीं दिखती है तो सिर्फ इसलिए कि ये लेख दुराग्रहपूर्वक नहीं लिखे जा रहे हैं। सारी बातें तथ्यों पर आधारित है और लालू जी से ही संबोधित है। मेरी बातों को झुठलाना उन तथ्यों को गर्त में दफन देने के बराबर होगा। ऐसा तो मुझे लगता है कि लालू जी भी न कर पायें। वैसे रेलमंत्री के रूप में उन्होंने ने देश के सामने जो आईकॉन्स पेश किये हैं, उसकी प्रशंसा भी आप इसी ब्लाग पर कभी पढ़ सकेंगे। फिलहाल आप तथ्यों की भी आलोचना चाहते हैं, यह पढ़कर आश्चर्य हुआ। आपका यह इरादा क्या आंखों देखी बात को भी झुठलाने जैसा नहीं है?

अरविन्द शर्मा ने कहा…

बिहार में क्या लालू के पहले नरसंहार नहीं हुए थे ? बेलछी, डोहिया-परसबिघा, मेन-बर्सिम्हा हरिजन नरसंहार आदि ऐसी कई घटनाएँ हैं जो लालू के पहले के बिहार की हकीकत बयां करती हैं. मेरे हिसाब से लालू का दोष सिर्फ इतना है कि वह नरसंहार के सिलसिले पर ब्रेक नहीं लगा पाए. बिहार की बदहाली के लिए अकेले लालू को दोष देना भी ठीक नहीं. क्या पृष्ठभूमि बनाने वाले को यूँ ही बख्श देना पक्षपात नहीं ? जब हम गर्त में सीढ़ी दर सीढ़ी उतर ही रहे थे तो लालू के ज़माने में आखिरी सीढ़ी भी उतर गए. ऐसे में सारी तोहमत क्या आखिरी कदम पर ही डाल देना, गड्ढा खोदने वालों को माफ़ कर देने जैसा नहीं है ? आजादी के बाद बिहार की गिनती संपन्न राज्यों में होती थी, लेकिन जगन्नाथ मिश्र और सत्येन्द्र नारायण सिंग के कार्यकाल का भी आकलन आपने किया ? उस समय तक बिहार कितना पिछड़ चुका था.

MS ने कहा…

अरविंद जी आपकी राय से मैं भी इत्तेफाक रखता हूं...और पिछले पोस्ट में मनोज जी की बातों को रखने का मैंने समर्थन किया था...और कुछ सवाल भी उठाए थे...वाकई तथ्यों को समग्र रूप में देखा जाना चाहिये...

उपाध्यायजी(Upadhyayjee) ने कहा…

अरविन्द जी,
शायद आपने डेढ़ वर्षो में डेढ़ दर्जन वाली बात पर गौर नहीं किया | दूसरी बात की सरकार के मुखिया होने के नाते आपका प्रतिक्रिया कैसी होनी चाहिए | वो मारा तो खून दूसरा मारा तो पानी ? और उसके पहले वाले के शाशन में हुआ तो ऐसा नहीं हा की इनके वाले को हम भुला दें. ऐसे तथ्वो को सहेज कर रखना जरूरी है | पोस्ट आजादी यही हुआ | हमें वही पढ़ने को मिला जो सो काल्ड इतिहासकार लिखना चाहे. बहुत सारे तथ्व गायब हो गए |