पटना में २२ फरवरी को लालू प्रसाद यादव ने रविदासों के समक्ष भले भोलेपन से यह सवाल किया हो कि आखिर उनसे क्या गलती हो गयी जो बिहार की सत्ता से उन्हें बेदखल कर दिया गया, पर उनका यह सवाल है उत्तर तलाशने के लायक। यह अलग मसला है कि वे आज केन्द्र में उसी कांग्रेस की छत्रछाया में रेलमंत्री बनने का गौरव हासिल कर रहे हैं, जिसे कोस-कोस कर वे राजनीति में जवान हुए, पर कभी जेपी का अनुनायी कहलाकर गर्व से सीना तानने वाले इस शख्स की बिहार के मुख्यमंत्री पद पर ताजपोशी भी भ्रष्ट आचरण के तहत ही हुई थी।
बात १९९० की है। वीपी सिंह का जमाना था। देश में गैर कांग्रेसवाद की लहर चल रही थी। तब न तो मंडल कमीशन आया था और न ही लालू की मुरलीधरन छवि ही लोगों के नूरेनजर थी। विधान सभा चुनाव में जनता दल बड़ी पार्टी के रूप में सामने आया था। मात्र गैर कांग्रेसवाद को लेकर कांग्रेस का तख्ता पलट दिया गया था, उसे जनता बहुमत से अल्पमत में ले आयी थी। बिहार में ही नहीं, केन्द्र में भी। गैर कांग्रेसवाद के गर्भ से निकला था जनता दल और उस वक्त भी उसके पास स्पष्ट बहुमत नहीं था कि अकेले वह सत्ता चला सके। तालमेल हुआ। झामुमो, भाजपा, माकपा, भाकपा और जद ने समझौता किया और कांग्रेस को सत्ता में आने रोका गया। बिहार में तो नेतृत्व संकट की भीषण स्थिति पैदा हो गयी थी। मुख्यमंत्री की कुर्सी पाने के लिए जनता दल में उठापटक शुरू हो गयी थी। उस वक्त राम सुंदर दास मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार थे। रमई राम, रघुनाथ झा को भी इस दौड़ में शामिल किया जा रहा था। यहां तक कि गैर कांग्रेसवाद का झंडा थामे अगली पांत के नेता युवा तुर्क चंद्रशेखर भी यही चाह रहे थे कि रघुनाथ झा या राम सुंदर दास को ही मुख्यमंत्री बना दिया जाय। मगर, उस वक्त की राजनीति और जनता दल में मजबूत स्थिति रखने वाले देवीलाल ने लालू यादव के नाम का प्रस्ताव कर दिया। और जैसे कालांतर में एचडी देवगौड़ा या इंद्र कुमार गुजराल रातोरात प्रधानमंत्री बने, वैसे ही लालू यादव मुख्यमंत्री बन गये। जनता ने उन्हें नहीं चुना था और जिन्होंने उन्हें चुना था, ऐसा करने का उनके पास कोई अधिकार नहीं था। लालू प्रसाद यादव तो उस वक्त विधायक भी नहीं थे। मुख्यमंत्री की गद्दी संभालने के बाद उन्होंने चुनाव लड़ा और संवैधानिक रूप से मुख्यमंत्री पद के लायक बने। तो यह था लालू के बिहार की गद्दी पर काबिज होने का सच। सामाजिक समरसता कायम करने वाली पार्टी का पहला मुख्यमंत्री ही अलोकतांत्रिक तौर-तरीके और गैर जनमत से चुना गया। इस प्रक्रिया को भ्रष्टाचार की श्रृंखला में रखा जाय तो लालू के मुख्यमंत्री पद पर प्रतिष्ठित किया जाना भी एक भ्रष्ट प्रक्रिया ही थी, जो खुलेआम लोकतांत्रिक प्रणाली की धज्जियां उड़ा रही थी। फिर भ्रष्टाचार के माध्यम से स्थापित मुख्यमंत्री न्याय औऱ नैतिकता की बात किस मुंह से करता? और इसी का परिणाम हुआ कि पूरे सूबे में अराजकता की स्थिति पैदा होती चली गयी। जनता दल के कार्यकर्ता खुलेआम आपराधिक घटनाओं को अंजाम देने लगे। हत्या की राजनीति मुखर हो गयी। संतरी से मंत्री तक जातीय समीकरण के तहत बहाल किये जाने लगे। गुण और गुणवत्ता को नजरअंदाज किया जाने लगा। लालू रोज भड़काऊ भाषण देने लगे। जनता के नाम पर जनतंत्र का जितना मजाक लालू ने उड़ाया, इसका आकलन करना या उसे विश्लेषित करना आने वाली पीढ़ी को गलत रास्ते का पाठ पढ़ाने जैसा ही है, पर यह सच है कि एशिया के मानचित्र पर सिंधू घाटी के बाद सबसे पहले सभ्यता का विकास करने, अपनी भौतिक संपदा के साथ-साथ वैचारिक अमृत से मानवता को सींचने और नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाला बिहार क्रूरतम हिंसा, जघन्यतम अपराध और महाघोटालों की विषबेलियों से इस कदर जकड़ता गया कि उसकी चिरपरिचित अस्मिता पर ही संकट के बादल मंडराने लगे। जिस बिहार के बुद्ध, महावीर, चाणक्य, चंद्रगुप्त मौर्य, अशोक, शेरशाह, सूफी-संतों व भक्त कवियों, सामाजिक क्रांतिकारियों और राजनैतिक हस्तियों ने समय-समय पर देश की संस्कृति में नये अध्याय जोड़े, वही बिहार लालू के राज में जंगल राज का पर्याय बन गया था।
फिलहाल इतना ही। लालू प्रसाद यादव के सवाल के बहाने जवाबों की तलाश में इतिहास को खंगालने का सिलसिला अभी जारी रहेगा। अगली पोस्ट में पढ़िए-इंसानी लाशों से पटता जा रहा था बिहार।
बुधवार, 25 फ़रवरी 2009
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9 टिप्पणियां:
बड़ा बढ़िया लिखे हैं. नया नया रेलगाडी देकर बदले में फिर से बिहार चाहने वालों को .आपने जड़ कुरेद दी है.
भ्रष्टाचारी अत्याचारी और महामारी को बिहार की जनता बड़ी मुश्किल से रेल में बिठाया है .
यहां है कोई ऐसा नेता जो अपनी ईमानदारी से मंत्री बनता है!
लेख तथ्यपरक है। सोचने को बाध्य करते हैं। नयी पीढ़ी को इसे जानना चाहिए। लालू के लिए भी यह आईना साबित होगा। शायद इससे उन्हें कोई सबक मिले, इसी आशा के साथ।
बहुत अच्छा लिखा है आपने. अगले आलेख का इंतजार है.
शब्दशः सत्य लिखा आपने......या कहें आपका यह आलेख एक आईना है जिसमे लालू शाशित समय का सच दिखाया है आपने......लालू जी ने बिहार की जो दुर्गत की है वह किसी भी मायने में उन दरिन्दे अंग्रेज या मुस्लिम शासकों से कम नहीं जिन्होंने शासन के नाम पर सिर्फ लूटना बांटना और व्यवस्था को धराशायी करना ही जाना था...
अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी....
वाह क्या लिखा है भाई ...सचमुच छा गये
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
मुझे जितने भी बिहारी मिले है सब इस नाम से नफ़रत ही करते पायेगे है.... किस किस की वदुआ से बचेगा यह आदमी...
बहुत कम लोग हैं जो सत्य को इतना बेबाक लिखते हैं | ये कहानी / घटना क्रम को लगभग सभी जानते हैं लेकिन लिखते बहुत कम लोग हैं | देवी लाल अपनी जाती या उस जाती के आस पास के व्यक्ति को सी एम बनाना चाहते थे और कोई नहीं दिखा तो श्रीमान जी को ही चुन लिए | और इतिहास गवाह है क्या हुआ | ९० के दसक में खून की नदियाँ बह गयी बिहार में | और स्थिति वही ढाक के तीन पात | ले देकर बिहार की जनता समझ गयी की सामाजिक न्याय के नाम पर उनका जो दोहन हो रहा है उससे निकलना होगा | और उस सामाजिक न्याय को रेल के डब्बे में बंद कर दिल्ली भेज दी | हमें जीने खाने दो |
मुझे लगता है कि लालू के बारे में आपने एकतरफा होकर सोचा है. सामंती दृष्टि को छोड़ कर दबे- कुचले होकर अगर सोचते तो लालू को बेहतर समझ पाते. आपके विचारों में एक जाति विशेष की मानसिकता झलकती है.
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