गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009

लालू ने सम्मान से जीना सिखाया

मनोज कुमार हमारे तब के मित्र हैं, जब हमलोग नवादा, बिहार में पढ़ते थे। इन दिनों अध्यापन कर रहे हैं। लालू के सवाल के बहाने यहां जो बातें कही जा रही हैं, उनपर उन्हें आपत्ति हैं। कुछ बातें उन्होंने लिख भेजी है। हम उसे जस का तस पोस्ट कर रहे हैं।

इन सारी बातों के बीच किसी को यह नहीं भूलना चाहिए कि वो लालू यादव ही हैं, जिनकी वजह से बिहार की दलित और पिछड़ी आबादी सर उठाकर जीना सीख रही है। कोई भी सामाजिक क्रांति जब होती है तो उसके कुछ न कुछ साइड इफेक्ट्स भी होते हैं। सब कुछ अच्छा ही अच्छा नहीं होता। साइड इफेक्ट्स को लालू की गलतियों के रूप में प्रचारित कर आप किसका भला करना चाह रहे हैं। क्या बिहार के दलितों और पिछड़ों को सर उठाकर जीने का हक नहीं था? लालू यादव ने सामंतों के अत्याचार और अन्याय का प्रतिकार किया तो वह सामाजिक समरसता के कातिल हो गए? सामंती ताकतों का अत्याचार बहुत अच्छा था? सच बात तो यह है कि जिन ताकतों को राज करने की आदत पड़ गई थी, वही लोग पिछड़ों और दलितों का उभार देख नहीं पा रहे हैं।

लालू यादव ने बिहार का विकास रोक दिया, ऐसा कहने वाले पीछे मुड़कर क्यों नहीं देखते। जगन्नाथ मिश्र, बिंदेश्वरी दुबे के कायॆकाल में क्या कम भ्रष्टाचार था। तब विकास की गंगा बह रही थी, तो भी बिहार लालू काल से पहले पिछड़े और बीमारू राज्यों की श्रेणी में क्यों शुमार था?

अब कहा जा रहा है कि एक खास वगॆ के लोग पूरे बिहार में अराजकता मचा रहे थे। लालू यादव से पहले स्वणॆ जातियों के लोग पिछड़ी और दलित जाति के लोगों के खिलाफ जो मनमानी कर रहे थे, उसे अराजकता क्यों नहीं कहा जाता? क्या सिफॆ इसलिए नहीं कि तब उस अराजकता को ही सिस्टम मान लिया गया था? क्या उस सिस्टम को तोड़ा नहीं जाना चाहिए था? सच बात तो यह है कि सामंतों के अत्याचार और अन्याय का प्रतिकार किया गया तो हल्ला इस बात का किया गया कि बिहार में तो स्थिति अराजक हो गई है!

मेरा सिफॆ इतना कहना है कि लालू यादव के कायॆकाल से पहले के कायॆकाल को भी याद किया जाए। भ्रष्टाचार, अपराध और भाई-भतीजावाद की त्रिवेणी तब भी बह रही थी। बिहार तब भी पीछे ही जा रहा था। लेकिन तब आत्मसम्मान के साथ जीने वाले लोग कुछ फीसदी थे। अब स्थिति बदली तो यही कुछ फीसदी लोग बेचैन हो गए। अराजकता-अराजकता का नारा बुलंद करने लगे।

ऐसे में अनुरोध सिफॆ यह है कि स्थितियों को सिफॆ अपने चश्मे से न देखें। दूसरी बात यह कि हमेशा गुण-अवगुण दोनों बातों को ध्यान में रखा जाना चाहिए। वरना तो आप कोई भी बात कहने के लिए स्वतंत्र हैं हीं। मेरी बात यदि आप यहीं प्रकाशित कर सकें तो मुझे खुशी होगी।
मनोज कुमार, रुनीपुर, नवादा, बिहार

लालू यादव ने जो सवाल पूछा है, उसके जवाब में और भी लोगों के दिमाग में ढेर सारी बातें घुमड़ रही होंगी। इस चरचा में अगर आप भी शामिल होना चाहते हैं तो स्वागत है। आप अपनी बातें हमें लिख भेजें इस पते पर-imtihan08@gmail.com। हम आपकी बातों को आलेख के रूप में प्रकाशित करेंगे।

2 टिप्‍पणियां:

राज भाटिय़ा ने कहा…

हमे इस आलेख का इंतजार रहेगा.
धन्यवाद

MS ने कहा…

पुरुषोत्तम जी, मनोज जी को भी अपनी बात कहने का हक है...और उनकी बातें सबके सामने लाने के लिए धन्यवाद...मनोज जी की बातें काफी अहम हैं...उन्होंने अपनी बात कही...हमने पढ़ी...इम्तिहान की बहस में ऐसा विचारों का भी स्वागत होना चाहिये...मनोज जी हम ये नहीं कह रहे कि लालू यादव में बुराइयों का भंडार है...उन्होंने अच्छे काम भी किये हैं...और मेरा मानना है कि तस्वीर के दोनों पहलुओं को देखना चाहिये...लेकिन क्या अच्छाइयों और बुराइयों का परसेंटेज बिल्कुल ही भूल जाना चाहिये? मनोज जी क्या बताएंगे कि अच्छाइयां ज्यादा हैं...या बुराइयां...मनोज जी क्या बताएंगे कि ये बहस ठीक या समाजहित में नहीं है...मेरा निवेदन है कि मेरी बातों को अन्यथा न लिया जाए...ये किसी पर व्यक्तिगत आक्षेप नहीं है...इम्तिहान के बहस में मेरे निजी विचार हैं...धन्यवाद