हिन्दुस्तान का मतलब गांव, वहां की गलियां, भोले-भाले लोग। हिन्दुस्तान का मतलब दिल्ली, वहां की गद्दी, गद्दी पर बैठे लोग। जी हां, आप देख सकें तो देख सकते हैं कि भोले- भाले ग्रामीण से लेकर दिल्ली की तख्त पर बैठा हमारे देश का सिरमौर तक सभी हाथ जोड़े खड़ा है। भिखारी की तरह। वाह - वाह - वाह। यह कैसी आजादी है, कैसी आजादी? भिखारियों की फौज। वाह। गरीब को राहत चाहिए दिल्ली से और दिल्ली को कहीं और से। न वह गरीब ग्रामीण अपने मन का एक फैसला कर सकता है, न दिल्ली की तख्त पर बैठा हमारा सिरमौर आजाद मुल्क को एक आजाद भाषा ही दे सकता है। परजीवी लोगों की बढ़ती तादाद ने फिलहाल जो नक्शा खींचा है, शायद उसी का नतीजा है कि देश का चप्पा - चप्पा मल्टीनेशनल कंपनियों के दफ्तरों से गुलजार हो चुका है, किसान बीजों से महरुम होते जा रहे हैं और कोने-कोने में दलाली - चमचागीरी करने वालों की चौबीसो घंटों खूब छन रही है। एक भी ऐसी जगह आप नहीं ढूंढ़ सकते, जहां आप फख्र से सीना तानकर खड़े हो सकें और कह सकें कि हां, हम आजाद मुल्क में एक आजाद नागरिक की हैसियत से खड़े हैं।
मेरी बातों पर यकीन नहीं हो तो एक जाति प्रमाण पत्र या एक आवासीय प्रमाण पत्र बनाने प्रखंड कार्यालय पहुंचिए। वहां का चपरासी भी आपसे बात करने की जहमत उठाना नहीं चाहेगा। अधिकारी से बात कर आपको लगेगा ही नहीं कि आप किसी जनतांत्रिक प्रणाली वाले देश के किसी लोकसेवक से बात कर रहे हैं। कोई आपकी सुनने को तैयार नहीं होगा। और यह स्थिति बिहार के नेपाल बार्डर से पंजाब के पाकिस्तान बार्डर तक एकरस में आप महसूस कर सकते हैं। मैंने महसूस किया है। जिला परिवहन का कार्यालय वह उत्तर प्रदेश के किसी जिले का हो या महाराष्ट्र के किसी जिले का, दलालों और बिचौलियों की फौज हर जगह समान रूप से आपका स्वागत करती मिलेगी। और शिकायत किससे करेंगे। जरा शिकायत करने वाले बड़े अधिकारियों तक पहुंचिए। भई क्या मिजाज है बादशाहों के? नवाबों के दौर के बड़े से बड़ा एय्याश तानाशाह भी शरमा जायें। बात कितनी सुनी जायेगी, यह तो जाने पर ही पता चलेगा। यह है न हैरत की बात कि एक सिस्टम का पूरा इंफ्रास्ट्रक्टर खड़ा होने के बावजूद आप दौड़ते रहते हैं, तड़पते रहते हैं, आपका काम नहीं होता। जिन्हें आपका नौकर कहा जाता है, उनके सामने पहुंचते ही आप क्या भिखारी नहीं बन जाते? और उस नौकर को इसी सिस्टम के बड़े नौकर के सामने कभी देख लीजिए, वह भी वहां आपको हाथ जोड़े कृपा की भीख मांगता ही दिख जायेगा। वह बड़ा नौकर कहीं अपने से ऊपर वाले के दरबार में खड़ा दिखा तो हाथ जोड़े ही खड़ा दिखेगा। माफी मांगता, भीख मांगता, दया की भीख।
जिस तरह से आर्थिक विकास की दर को तेज और तेज करने की प्रक्रिया चल रही है, उसके तहत देखने को यह मिल रहा है कि इस देश का अच्छा खासा ग्रेजुएट गले में टाई लगाकर व पैरों में काले जूते डालकर डोर-टू-डोर कंपेन करता चल रहा है। हम रोजगार के अवसर सृजित नहीं कर पाये, इसका खामियाजा वह चौबीसों घंटे कभी सड़क पर तो कभी दफ्तर में आपको हाथ जोड़े ही मिल जायेगा। इस पर भी तुर्रा यह कि वह भूल से भी अपने अधिकारों की बात नहीं कर सकता। किसी गुलाम मुल्क के गुलाम नागरिक जैसी हालत ही है उसकी। सरकारी हो या निजी, आप बस अड्डे पर चले जाइए। जहां सुरक्षा की सबसे ज्यादा जरूरत है, वहां आपको पुलिस का एक भी नुमाइंदा नहीं दिखेगा। भूल से दिख भी गया तो वह आपकी किसी हेल्प के लिए नहीं, अपनी जेब गरम करने की मशक्कत में ही जुटा दिखेगा। आप उससे तनकर कुछ भी नहीं कह सकते। वह आप पर गुर्राता है और आपकी स्थिति होती है हाथ जोड़कर खड़े भिखारियों वाली।
कहां जायेंगे आप? अस्पताल? दावे तो बहुत हैं, पर आसानी से करा लीजिए इलाज तो वीर कहे जायेंगे। सरकार के लाख प्रयास के बावजूद सरकारी अस्पतालों में नियुक्त डाक्टरों के निजी प्रैक्टिस पर रोक नहीं लगायी जा सकी। जो डाक्टर निजी प्रैक्टिस चलाते हैं, उनसे आप सरकारी अस्पताल में इलाज कराकर देखिए, आपको पुर्जा तक फेंककर दिया जायेगा, इसकी मैं गारंटी देता हूं। आपकी दशा उस डाक्टर के सामने अपने अधिकारों से लैस किसी मजबूत नागरिक की तरह नहीं होगी। आप हाथ जोड़े कलपते नजर आयेंगे, डाक्टर साहब, डाक्टर साहब करते नजर आयेंगे। इसी डाक्टर के निजी क्लिनिक पहुंचिए। आजकल तो डाक्टरों ने ब्लड प्रेशर तक की जांच तक करना छोड़ दिया है। इस काम को वे अपनी शान में गुस्ताखी समझते हैं। वहां की कोई दाई तो थर्ड ग्रे़ड का कंपाउंडर यह काम निपटा देगा। पैसा देकर भी आप कलपते नजर आयेंगे और इस रुख से आपको निजात दिलाने वाला कोई सिस्टम आपको कहीं नजर नहीं आयेगा। यह गारंटी है, नजर नहीं आयेगा। और तब आपके श्रीमुख से यदि यह निकल आये कि यह कैसी आजादी, तो मुझे धन्यवाद जरूर कीजिएगा। फिलहाल इतना ही। आजादी के सच्चे अर्थों की तलाश करती रपटों का सिलसिला अभी जारी रहेगा। धन्यवाद।
मंगलवार, 18 अगस्त 2009
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1 टिप्पणी:
दुखांत फिल्मों और पुराने उपन्यास के कथानक से प्रभावित आलेख। मामला थोड़ा अतिरंजित लगता है। अब तो काम नहीं करने वाले बाबू, अधिकारी पीटे भी जाने लगे हैं।
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