1999 में जब कारगिल की लड़ाई छिड़ी थी और द्रास-कारगिल में बर्फ की सफेद पट्टियां वीर जांबाजों के खून से लाल हो रही थीं, उस दौरान हमारे नेताओं के आम चुनाव के नफा-नुकसान के आकलन में मशगूल रहने को लेकर झारखंड के एक इंजीनियर कवि ओमप्रकाश वरनवाल ने जो मुक्तक लिखा था, वह आज भी मौजूं है। 'चूडिय़ां, सिंदूर, आंचल, शव, उदासी और कफन, ढो रहे हैं शहर कब से बाअदब और बेसिकन, वह चुनावी लाभ-नुकसानों में ही मशगूल हैं, बर्फ के कागज पे जबकि फौज लिखती है वतन।’ सिलसिला आज भी वही है। कारगिल फतह के दस वर्ष बीत गये। भारतीय सेना ने पाकिस्तान को धूल चटाते हुए पूरे कारगिल क्षेत्र पर तिरंगा लहराया था। इसके लिए देश ने कई शहीद खोये, कुछ उत्तर बिहार के भी थे। फतह के बाद शहीदों की स्मृति को बनाये रखने के लिए जो घोषणाएं की गयीं, उस पर ईमानदारी से आज तक अमल नहीं किया गया। शहीदों के गांव से गुजरने पर आपको एक भी ऐसा चिह्न नहीं मिलेगा, जिससे आप यह कह सकें कि यह शहीद का गांव है।
सपना ही है शहीद प्रमोद हाईस्कूल
मुजफ्फरपुर जिले में कुढऩी प्रखंड की माधोपुर-सुस्ता पंचायत के माधोपुर निवासी शहीद प्रमोद कुमार की शहादत के बाद श्रद्धा के फूल चढ़ाने आयीं तत्कालीन मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने जो घोषणाएं कीं, उनमें से कई अभी पूरी नहीं हुई हैं। माधोपुर मध्य विद्यालय को उच्च विद्यालय में उत्क्रमित करने के साथ उसका नाम शहीद प्रमोद के नाम पर करने की घोषणा आज तक अमल में नहीं आ पायी। माधोपुर चौक तक जाने वाली सड़क का नाम शहीद प्रमोद पथ नहीं हो पाया। शहीद के परिजन खेती योग्य पांच एकड़ व शहरी क्षेत्र में साढ़े 12 डिसमिल जमीन से भी वंचित है। माधोपुर चौक पर शहीद की प्रतिमा भी नहीं लग सकी।
शहीद अरविंद के नाम स्मारक तक नहीं बना
पू.चंपारण के रामगढ़वा प्रखंड क्षेत्र का भटिया गांव अब कारगिल शहीद अरविंद पांडेय के गांव के नाम से जाना जाता है। कारगिल में तैनात चंपारण का यह वीर सपूत कांस्टेबल अरविंद 29 मई 1999 को वीरगति को प्राप्त हुआ। यहां लोगों को अरविंद के शहीद होने पर फक्र है, पर इस बात का मलाल भी है कि गांव के प्रवेश द्वार पर उसके नाम से स्मारक बनाने की घोषणा आज तक पूरी नहीं हुई।
भुला दिये गये शहीद ले.अमित
कारगिल में शहीद समस्तीपुर जिले के पूसा प्रखंड के महमद्दा पंचायत के ले. अमित सिंह को सरकारी स्तर से भुला-सा दिया गया। इलाके में न तो सरकार द्वारा उनकी स्मृति में अब तक कोई सड़क का नामकरण किया गया है, न ही कोई उद्यान-विहार का निर्माण ही हो सका है।
प्रतिमा के लिए जगह तक नहीं
दरभंगा में बेनीपुर अनुमंडल का हरिपुर गांव। यहां के दो सपूतों ने देश की रक्षा में अपनी कुर्बानी दी है। स्व. भोला झा के पुत्र सीआरपीएफ जवान महाकांत झा कारगिल युद्ध में तैनात हुए तो उनका पार्थिव शरीर ही लौटा। सम्मान के साथ उनकी अंत्येष्टि तो की गयी, पर उनकी स्मृति को संजोने के लिए कुछ खास नहीं हो सका। गांव वालों को मलाल है कि उनके गांव के दो-दो सपूत देश के काम आये पर प्रशासन गांव की ओर रुख नहीं करता। परिजनों को मलाल है कि अन्य सुविधाएं तो दूर, प्रतिमा लगाने के लिए सरकार जमीन भी मुहैया नहीं करा सकी।
मिट रहीं शहीद की यादें
शिवहर में पुरनहिया प्रखंड का बखार चंडिहा इतिहास के पन्नों में भले कारगिल के अमर शहीद मेजर चंद्रभूषण द्विवेदी के गांव के रूप में दर्ज हो चुका है, पर यहां ऐसा कोई निशान नहीं दिखता, जिससे आने वाली पीढ़ी अमर शहीद के गांव के रूप में इसकी पहचान कर सके। पत्नी वंदना द्विवेदी को मलाल है कि उनके पति को लेफ्टिनेंट कर्नल के पद पर पदोन्नति के बावजूद मेजर पद का ही लाभ मिला। शहीद का स्मारक कराह रहा है। तत्कालीन वाजपेयी सरकार ने शहीद के गांव, सड़क, स्कूल, सामुदायिक भवन आदि का नाम शहीद के नाम पर किये जाने की घोषणा की थी, जो एक दशक बाद भी पूरा नहीं हो सकी है।
इस हाल पर हम तो यही कह सकते हैं कि कारगिल शहीदों, हमें माफ करना।
रविवार, 26 जुलाई 2009
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2 टिप्पणियां:
अमर शहीदों को नमन.
Kahne ko kuch nahin!
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