सच मानिये, राहुल गांधी ने पांच मई को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की प्रशंसा कर अपने बोलक्कड़ और मजाकिया लालू प्रसाद तक को भी सन्नाटे में डाल दिया। जब पत्रकारों ने उनसे इस मसले पर बात करनी चाही तो इसका वे स्वाभाविक रूप से जवाब भी नहीं दे पाये। रामविलास पासवान का भी कुछ ऐसा ही हाल था। दोनों ने बच-बचाकर बयान दिया और निकल गये। इस बयान पर कुछ भी बोलना राहुल के खिलाफ बोलना होता और यह कांग्रेस पर सीधा हमला होता। सूबे में गलबहिया कर राजद और लोजपा जिस तरह कांग्रेस को बेटिकट कर उसके खिलाफ चुनाव लड़ रहे हैं, वैसी हालत में अपने प्रतिद्वंद्वी का प्रहार इतने चुपके से झेल जाना लोगों को आश्चर्य में डाल रहा है। जिस प्रकार ये दोनों नेता राहुल के बयान के बाद सिटपिटाये दिखे, उससे तो यही लगता है कि वे लोगों को लाख झांसा दे लें, पर अभी कांग्रेस को वे अपनी जरूरत समझते हैं और इस मामले पर कुछ भी संभल कर ही बोलना-करना चाहते हैं। हालांकि, दोनों के सिटपिटाने का अर्थ भी अलग-अलग लगाया जा रहा है। लालू चारों ओर से घिरे दिख रहे हैं। पार्टी के साथ खुद की प्रतिष्ठा तो दांव पर लगी हुई है ही, दुश्मन यानी नीतीश के मजबूत होने का खतरा भी उन्हें साफ-साफ दिख रहा है। उधर, रामविलास पासवान के बारे में जो तीर-तुक्के लग रहे हैं, उसकी अनुगूंज भी परेशान करने वाली ही है। ये तीर-तुक्के सच निकले तो वे सिर्फ और सिर्फ लालू के लिए ही झटके की बात होगी। तीर-तुक्का कहता है कि सरकार किसी की बने, रामविलास तो मंत्री बनते ही हैं। इस बार स्थिति थोड़ी बिगड़ी है, पर राहुल के इस बयान पर भी उनका कुछ न बोलना यही बताता है कि वे स्थिति सुधारने में लग गये हैं। तो है न यह लालू को सन्नाटे में डालने की बात?
राहुल का बयान था ही कुछ ऐसा कि अच्छे-अच्छे के सामने सन्नाटा खिंच गया। उनकी बातों में चुनाव बाद सरकार के गठन की रणनीति के साफ संकेत दिख रहे थे। दरअसल कांग्रेस में इस वक्त राहुल गांधी की हैसियत काफी दिलचस्प और मजबूत समझी जा सकती है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पार्टी और रणनीति के मसले पर कोई खास दिलचस्पी नहीं लेते, न ही कोई टिप्पणी देते हैं, जबकि कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी इस प्रकार का खुला बयान देने से सदा परहेज करती हैं। ऐसे में कांग्रेस में पीएम इन वेटिंग समझे जाने वाले राहुल गांधी जब कुछ बोलते हैं तो उस बात का बड़ा मायने हो जाता है। अपने क्रियाकलापों से उन्होंने अब तक गंभीर छवि का प्रदर्शन किया है और इसी के मद्देनजर कोई गंभीर व्यक्ति उनके बयान को व्यक्तिगत और बचकाना समझने की गलती नहीं कर सकता।
तो क्या यह साफ हो गया है कि चुनाव के बाद सरकार बनाने की नौबत आयी तो कांग्रेस के साथ जदयू होगा? जदयू होगा तो यह तो साफ है कि लालू नहीं होंगे। तो क्या कांग्रेस को जदयू की ओर से चुनाव बाद सरकार बनाने के लिए मदद का मजबूत आश्वासन मिल चुका है? हालांकि, नीतीश कुमार ने मजबूती से इसका खंडन किया है और जदयू-भाजपा गठबंधन को मजबूत बताया है, पर जानकार जानते हैं कि यह राजनैतिक चोंचले हैं, जो वक्त-वेवक्त बदल जाते हैं। ऐसे भी विकास और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर आज भी कांग्रेस एकमात्र आम ग्राह्य पार्टी की छवि में है। इस पार्टी ने यह भी दिखाया है कि गठबंधन सरकार कैसे अपना कार्यकाल पूरा करती है। ऐसे में नीतीश के बयान के बाद भी यदि जदयू से कांग्रेस का तालमेल हुआ तो शायद ही किसी को आपत्ति हो। व्यक्तिगत रूप से अब तक मेरी जितने लोगों से बात हुई है, उनका यही कहना था कि जदयू को कांग्रेस से तालमेल करना ही चाहिए। यह पार्टी हित के साथ-साथ देश औऱ सूबे के हित में ही होगा।
ऐसा माना जाता है कि राहुल गांधी के बयान के बाद जिस संभावना की तस्वीर बनती है, उसका स्वरूप वास्तव में अगर आकार पा गया और सही मायने में कांग्रेस की जदयू से तालमेल कर सरकार बनी तो यह बिहार की राजनीति करने वाले कम से कम लालू प्रसाद यादव के लिए बेचैनी की बात होगी। वह भी उस हालत में जब रामविलास जी के बारे में तीर-तुक्के लग रहे हों। दरअसल, लालू के लिए आगे का वक्त अकेले सफर वाला ही बन रहा है, क्योंकि भाजपा जैसी दूसरे नंबर की राष्ट्रीय पार्टी से इनके गठबंधन की दूर-दूर तक संभावना जो नहीं दिखती। तो सूबे में आगे की राजनीति काफी भारी होगी, लालू के लिए खतरा इसका हो गया है। ईश्वर न करें, ये चुनाव हारें, पर जीत भी गये तो बदली परिस्थितियों में वह उनके लिए बेमानी ही हो जायेगी। बिल्कुल निर्दलीय जैसी ही तो हालत होगी उनकी? तो जब इतनी बातें वातावरण में तैर रही हों तो कैसे न हों लालू बेचैन? क्यों न बदल जाये उनका स्वाभाविक अंदाज? क्यों न मचे सन्नाटा। वैसे मतदान का चौथा चरण गुरुवार को सूबे में शांति से गुजरा, इसके लिए जनता के साथ-साथ अपने नेतागण भी बधाई के पात्र हैं, वर्ना तो हारने पर प्रलय मचने और मचाने तक की धमकी की अवधि अभी खत्म नहीं हुई है। द ग्रेट इंडियन तमाशा ऊर्फ महासंग्राम ऊर्फ आम चुनावपर चर्चा अभी जारी रहेगी।
गुरुवार, 7 मई 2009
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4 टिप्पणियां:
आपका लेख बहुत अच्छा है। वास्तव में जो संकेत मिल रहे हैं, वह लालू के लिए शुभ नहीं हैं। कोई बड़ी बात नहीं कि चुनाव बाद लालू यादव वतॆमान राजनीति के लिए अप्रासांगिक हो जाएं। कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार बनी और उसने रहम नहीं की तो तय तौर पर लालू मुसीबत में फंसेंगे। दूसरी तरफ राजग की सरकार बनी तो भी कई फाइलें फिर से खुलेंगी। अब ऐसे लालू के लिए एक तरफ कुआं तो दूसरी तरफ खाई है। किसमें गिरना पसंद करेंगे, लालू ही जानें। वैसे भी लालू यादव जिस तरह की हवा-हवाई राजनीति करते हैं, वैसी सियासत ज्यादा दिनों तक नहीं चलती। अपनी अदाओं के दम पर लोकप्रिय हो जाने भर की राजनीति नहीं चलती। ऐसा होता तो सारे अभिनेता बड़े नेता होते। लेकिन ऐसा है नहीं। लालू की राजनीति का दूसरा आधार जाति है, जिसने बिहार को बांटने के अलावा कभी और कुछ नहीं किया। बांटने वाली राजनीति आखिर कब तक चलती या कहें चलेगी।
शुक्ला जी, चुनाव के वक्त बिहार की सियासत से हमें रूबरू करवाकर आप बड़ा ही नेक काम कर रहे हैं।
तो क्या नीतिश भी धोखेबाज का टैग लगाना चाहेंगे. ये खिताब तो वैसे मायावती और देव गौडा जी को मिल चूका है. लेकिन देव गौडा जी का क्या हश्र हुआ ये सबको मालुम है. और नीतिश जी को इतना तो मालुम है की बिना बी जे पि के उनका नैया बिहार में पार नहीं कर सकता. लेकिन राजनीति में कुछ नहीं कहा जा सकता. फर्नांडिस साहब को तो ऐसे फेक दिया ये लोग जैसे चाय से निकल कर मख्खी.
आगे जो भी हो, कम से कम फ़िलहाल लालू जैसे जोकर और मीडिया के प्रिय "मसखरे पात्र" का फ़टा हुआ मुँह "टेम्परेरी" ही सही, बन्द तो हुआ… काश कि यदि वे राष्ट्रीय राजनीति में अप्रासंगिक हो जायें तो देश का भला हो…
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