यह राजनीति का वीभत्स चेहरा है जो इस बार के चुनाव में मुजफ्फरपुर संसदीय क्षेत्र में नजर आया है। उफ, इतना कुरूप, इतना कुत्सित! जदयू के गठन से लेकर हाल तक महान समाजवादी नेता जार्ज फर्नांडीस पार्टी के गार्जियन समझे जाते थे। अभी कुछ महीनों पहले राजगीर में पार्टी कार्यकर्ताओं के सम्मेलन में इस पार्टी के हालिया कर्ता-धर्ता व पुरोधा बने तथा बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सरेआम कहा था कि जार्ज जहां से चाहेंगे, टिकट दिया जायेगा। उन्होंने उन्हें खास तौर से मुजफ्फरपुर से टिकट देने का न केवल एलान किया था, बल्कि तब तक अभिभावक तुल्य रहे जार्ज से इसका वादा भी किया था। पर, देखते ही देखते राजनीति पलटी खा गयी। पार्टी पुराधाओं के लिए जार्ज बीमार हो गये। बीमार भी ऐसे कि लोकसभा के चुनाव के लिए तो नक्कारा बताये गये, पर राज्यसभा के लिए दरवाजा खोलकर रखा गया। पार्टी अध्यक्ष शरद यादव ने उन्हें इस बाबत एक पत्र लिखा। मसौदा था- शरद यादव जार्ज के गिरते स्वास्थ्य को लेकर चिंतित थे और नहीं चाहते थे कि चुनाव लड़कर और प्रचार की जहमत में फंसकर उनकी सेहत और गिरे। हां, इसी पत्र में उन्होंने जार्ज को सीट खाली होने पर बिहार से राज्यसभा का सांसद बनाने का आश्वासन भी दे डाला था। मगर, वाह रे जार्ज।जिस दिन शरद ने उन्हें चिट्ठी लिखी, उसी रोज उन्होंने पलटकर जवाब भेज डाला। इरादा साफ था- समाजवादी हूं, राज्यसभा में बैठना कबूल नहीं और सेहत खराब तो फिर राज्य सभा से भी भेजे जाने का प्रस्ताव क्यों? जार्ज नहीं माने। नतीजा- मुजफ्फरपुर से वे निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं। परिणाम अभी आना है।
सवाल यह नहीं है कि जार्ज मुजफ्फरपुर से जीतेंगे या हारेंगे। जीते तो जीत उनके लिए कोई नई नहीं होगी। कोई क्रांति नहीं होगी, कोई नयी पार्टी नहीं बनेगी, बस वे फिर सांसद बन जायेंगे। हारे तो उनके लंबे जीवन सफर में बस एक लाइन जुड़ जायेगी कि जार्ज जिंदगी की आखिरी पारी में चुनाव हार गये। पर, इसी के साथ गाथा बन जायेगी शरद की चिट्ठी के जवाब में पलटकर उनका चिट्ठी लिखना, सारी आशंकाओं को दरकिनार कर हिम्मत और जोश के साथ आखिरी लड़ाई में भी उतरना, पर्चा भरना, रोड शो करना, लोगों से मिलना, अपनी बातों को मजबूती से रखना आदि...। सवाल यह भी नहीं है कि जदयू के अभिभावक को पार्टी अध्यक्ष ने क्यों नहीं समझा चुनाव लड़ने के काबिल? राजनीति है चलता है। पर, यह राजनीति की किसने है, मैं यहां उसकी चर्चा करना चाहता हूं।
वैसे तो जो चर्चाएं हैं, उसके मुताबिक सारा खेल मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के दरो-दरवाजों और कांग्रेस के मुहानों से खेला जा रहा है, जिसके पीछे दांव पर है चुनाव के बाद सरकार के गठन की रणनीति और जिसकी बिसात से लालू-रामविलास को गायब करने के बदले जार्ज से पल्ला झाड़ने की है नीति। पर, राजनीति के इस खेल के परवाने पर जिस व्यक्ति ने हस्ताक्षर किये हैं, उनका नाम है शरद यादव। इतिहास उन्हें याद रखेगा। क्योंकि, इतिहास को यह याद है कि वही शरद यादव कभी इंजीनियरिंग का मेधावी छात्र हुआ करते थे और कभी इनके समाजवादी विचारधारा से खुश होकर ही जार्ज ने उन्हें टिकट दिया था। यह २७ वर्षीय शरद का पहला राजनैतिक सफर था, जिसे जार्ज के आशीर्वाद से आगे चलने-बढ़ने और मुकाम पाने का रास्ता मिला था। उस एक आशीर्वाद से शरद की जो राजनैतिक यात्रा शुरू हुई , वह आज तक चल रही है, चलती जा रही है। तब जार्ज समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष हुआ करते थे। और यह वही शरद हैं, जो बाहैसियत जदयू अध्यक्ष जार्ज का आखिरी टिकट काट चुके हैं। दिनकर ने कुरुक्षेत्र में कहा था- पूजनीय को पूज्य समझने में जो बाधा क्रम है, यही मनुज का अहंकार है, यही मनुज का भ्रम है। मेरा मानना है, यही राजनीति का वीभत्स चेहरा भी है। है कि नहीं?
बुधवार, 29 अप्रैल 2009
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2 टिप्पणियां:
कहने की जरूरत नहीं की आपने अच्छा लिखा है. लेकिन मैं एक बार फिर कहना चाहूँगा की सियासत ही क्यों हर जगह यही हालत है.
आपने दुरुस्त फरमाया, नीतीश की सारी इमेज बिल्डिंग जॉर्ज के अपमान के आगे कमजोर दिख रही है। नीतीश कुमार आजकल पत्रकारों के सिर्फ एक सवाल से चेहरा छुपाना चाहते हैं और वो है जार्ज का सवाल।ये नीतीश कुमार को वो चेहरा है जो उसे लालू से भी अमानवीय बनाता है। कम से कम लालू ने अपने सार्वजनिक जीवन में किसी का इतना खुलेआम अपमान नहीं किया था जितना नीतीश ने किया है। यहीं नहीं नीतीश के पास इस बात का भी कोई मुकम्मल जवाब नहीं है कि दिग्विजय सिंह, नागमणि और नीतीश मिश्रा को क्यों दरवाजा दिखाया गया। बिहार की जनता को अभी तक इन सवालों के जवाब का इंतजार है।
नीतीश कुमार विकास कार्यों के बदौलत मिली लोकप्रियता को पचा नहीं पा रहे और मदांध होते जा रहे हैं। आज का बिहार अपने आप को फिर से लालू के चंगुल में अपने आपको फंसाने का जोखिम मोल नहीं ले सकता। विधाता नीतीश कुमार को सदवुद्धि दे।
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