अरविंद जी ने पूर्व की पोस्ट 'जंगल राज के भी नियम ध्वस्त हो गये थे' पर अपनी कुछ टिप्पणियां दी हैं। उनकी बातें यहां हू-ब-हू पोस्ट कर रहा हूं। उन्होंने कहा है -
"शुक्ला जी, जनता अब जाति के आधार पर वोट देने लगी है. कोर्ट की तमाम नकारात्मक टिप्पणियों के बावजूद लालू की पार्टी बिहार में दोबारा सत्ता में आई, यह इस बात का परिचायक है कि सामाजिक समीकरण (जनता) तब भी लालू के पक्ष में था. कोर्ट की टिप्पणियों के आपके जितने भी उदाहरण हैं, सभी सन २००० के पहले के हैं. बिहार में इसके बाद भी चुनाव हुए और लालू की पार्टी २००५ तक सत्ता में बनी रही. हाँ, इसके बाद नीतीश कुमार की बिरादरी और राम विलास पासवान के समर्थक लालू के तिलिस्म से बहार निकल गए, जिसकी वजह से लालू से खार खाए लोगों को मौका मिल गया. कुर्मी और दलितों का अगर लालू से मोह भंग नहीं होता तो राबडी आज भी बिहार की मुख्यमंत्री होतीं. आपने लालू-राबडी राज की समीक्षा बहुत एकपक्षीय होकर की है. लालू की देन पर भी कभी गौर कीजिएगा, तो असली तस्वीर नजर आएगी. मेरे गाँव के कन्हाई साव ८० साल की उम्र में १९८८ में मर गए, लेकिन उन्होंने ताउम्र कभी बैलेट पेपर नहीं देखा, सामन्तियों ने कभी वोट डालने नहीं दिया. आज उनका पुत्र अपने मताधिकार का इस्तेमाल कर रहा है तो इसमें सौ फीसदी लालू का योगदान है. आपसे आग्रह है कि लालू राज की समीक्षा कभी आप कन्हाई साव के नजरिए से भी कीजिये, पत्रकारिता समग्र दृष्टि मांगती है. "
अरविंद जी की किसी बात पर कोई मीन-मेख न निकालते हुए मेरा मानना है कि वे अभी इस चर्चा को जारी रखना चाहते हैं, फिर विधानसभा चुनाव के बाद राजद के नेतृत्व में सरकार कैसे बनी, कैसे चली, इसका राज फाश करवाना चाहते हैं। हालांकि, मैं इस चर्चा की आखिरी किस्त लिख चुका हूं। मुद्दे और भी हैं, बातें और भी हैं। अरविंद जी चर्चा को एकपक्षीय करार देने के दौरान शायद उस प्रश्न को भूल गये, जिसके जवाब को तलाशने के लिए इतिहास को खंगाला जा रहा था। किसी व्यक्ति विशेष या पार्टी विशेष पर यह टिप्पणी नहीं थी। फिलहाल मैं तो इतना ही कहना चाहूंगा कि राबड़ी सरकार का फिर से सत्ता में आना सिर्फ जातिवाद के समीकरण का प्रभावी हो जाना नहीं था, यह बड़ी और मतलबी राजनीतिक गठबंधन का प्रतिफल भी था। हालांकि, यह भी इतिहास को खंगालने जैसा ही है। अरविंद जी की बातों का जवाब शायद उस इतिहास को खंगालने में मिल जाये, जब उन्हें यह बताया जाय कि बिहार में राबड़ी सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन क्यों लगा और कैसे हटा? बहस शुरू हो चुकी है, थोड़ी मशक्कत आप भी क्यों नहीं कर लेते अरविंद जी?
बुधवार, 4 मार्च 2009
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2 टिप्पणियां:
भाई हमे तो बहुत सी जानकारिया आप से मिल रही है, रुकिये नही...
धन्यवाद
शुक्ला जी,
अपने देश में सरकारों को बर्खास्त करने का पैमाना अक्सर भ्रष्टाचार नहीं होता. केंद्र की सरकारें राज्यों में अपने विरोधियों को सत्ता से बेदखल करते रही हैं. इसके लिए बहाना चाहिए होता है और खोजने से लाखों बहाने मिल भी जाते हैं. लालू पर लगाए आपकी एक-एक लांछन की काट मेरे पास है. मैं लांछन शब्द का इस्तेमाल इसलिए कर रहा हूँ कि आज के राजनेताओं को मैं बेदाग नहीं मानता, न ही राजनीति को पवित्र मानता हूँ. जब सारे स्यार एक ही रंग में रंगे हैं तो किसको बेहतर कहा जाए और किसको ख़राब. आपके आलेख की आलोचना करने का यह मतलब नहीं कि मैं लालू की तरफदारी कर रहा हूँ. मैंने कन्हाई साव का उदहारण इसलिए दिया था कि वह मेरी आँखों के सामने की घटना थी. उस घटना को तब मैंने दस साल पहले की घटना से जोड़कर देखा था. जब मैं तीसरी क्लास में पढता था तो पहली बार उत्सुकतावश वोट डाला था. अपने चाचा के साथ बूथ पर जाकर. मगर बिहार के लाखों कन्हाइयों को ८० साल की उम्र में भी वोट डालना नसीब नहीं हुआ. जहाँ तक जातिवाद की बात है तो मैं आप ही से पूछता हूँ कि जगन्नाथ मिश्र ने क्या कम जातिवाद किया ? सचिवालयों की नौकरियों में मैथिल लोग भरे पड़े हैं किसकी बदौलत ? जब शत्रुघ्न शरण सिंह शिक्षा मंत्री थे तो आप आंकड़े जुटा लीजिए, कितने भूमिहार शिक्षक हो गए. संयोग से शत्रुघ्न शरण सिंह मेरे ही क्षेत्र से विधायक हुआ करते थे, आज भी मेरे क्षेत्र के स्कूलों में ९० फीसदी शिक्षक भूमिहार हैं. इसी तरह जब अनुग्रह नारायण सिंह बिहार की राजनीति में प्रभावी हुआ करते थे तो राजपूतों ने चांदी काटी. मगध विश्वविद्यालय के कालेजों में ९० फीसदी लेक्चरार-प्रोफेसर राजपूत हैं. अपने शासन में लालू जी ने अगर यादवों को तरजीह दे दी तो कौन सा बड़ा गुनाह कर दिया. हमाम में अगर सभी नंगे हैं तो सिर्फ नाचने वाले को ही आप फांसी की सजा क्यों मुक़र्रर करना चाहते हैं.
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