लालू प्रसाद यादव ने पिछले दिनों पटना में एक समारोह में जनता से बड़े ही भावुक अंदाज में पूछा-मेरा कुसूर क्या था कि मुझे सत्ता से बेदखल कर दिया गया। लालू यादव ने उन वजहों का भी जिक्र किया, जिनके चलते उन्हें सत्ता से बेदखल नहीं किया जाना चाहिए था। क्या लालू यादव वाकई अपने सवाल का जवाब चाहते हैं? अगर हां तो उन्हें कुछ और लोगों के सामने अपने सवाल को रखना चाहिए।
उन आम लोगों से भी पूछा जाना चाहिए, जिन्होंने लालू और राबड़ी देवी के कायॆकाल में मान लिया था कि अगर बिहार में रहना है तो अपने दम पर, अपने बाहुबल पर भरोसा करके ही रहा जा सकता है। आगे बढ़ना है तो सरकारी मशीनरी से किसी मदद की उम्मीद न करें। अपने संसाधनों से विकास कर सकते हों तो करें।
उनसे भी लालू मुखातिब हों, जो उन परिस्थितियों में वहां रहने की हिम्मत नहीं जुटा सके और पलायन को मजबूर हुए। हालत यह हो गई कि महाराष्ट्र, पंजाब, पश्चिम बंगाल से लेकर देश के लगभग सभी हिस्सों में बिहार के लोगों की भीड़ सी हो गई। मजबूरी में बिहार छोड़ने वाले लोग कहीं दुरदुराए जाते हैं तो कहीं पीटे जाते हैं। इनमें से अधिकांश लोग वही हैं, जिनके उत्थान और आत्मसम्मान को बहाल करने की बात कहते लालू यादव अघाते नहीं। उत्थान होता आत्मसम्मान बढ़ता या बहाल होता तो क्या वे अपना देस छोड़ने को मजबूर होते। इनके, इनके परिवार वालों के पास भी तो वोट का अधिकार है, लालू यादव इनसे भी क्यों नहीं पूछते कि किन वजहों से उनका वह सिंहासन छीन लिया गया, जिस पर वे बीस साल तक बैठने का दावा करते थे।
सवाल तो उन उद्योगपतियों से भी पूछा जाना चाहिए जो रंगदारी, अपहरण की वारदातों और गुंडागरदी से त्रस्त होकर बिहार छोड़कर भाग जाने को मजबूर हुए। सत्ता में बने रहने के लिए केवल भावुक सवाल और नौटंकी की जरूरत नहीं होती। नागरिकों की बेहतरी और उनकी हिफाजत के उपायों की भी जरूरत होती है। जनता की हिफाजत की स्थिति यह थी कि लोग सवाल पूछने लगे थे कि अगला नरसंहार कब और कहां होगा? ऐसे सवाल पूछने वालों को जवाब देने का हक नहीं था क्या? नरसंहार को छोड़ भी दें तो कानून-व्यवस्था की हालत यह थी कि लोग शाम होते ही अपने घरों में दुबक जाने को मजबूर होते थे। राजधानी पटना तक में शाम होते असामाजिक तत्व ही सड़कों पर बचे रह जाते थे। महिलाएं इज्जत का जोखिम उठाकर ही दिन में भी घर से निकलती थीं। क्या-क्या गिनवाया जाए? लालू यादव को याद हो या न हो, जनता को तो अब भी याद होगा ही। आखिर भुगता तो उन्होंने ही है।
मंडल कमीशन लागू होने के बाद बिहार में आग लगी तो उसे बुझाने की जरूरत थी। लेकिन लालू यादव ने यह कहकर उस आग में घी ही तो डाल दिया कि ..भूराबाल (भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण, लाला-कायस्थ) साफ करो। लालू यादव बाद में भले ही इस पर लीपापोती करते रहे हों लेकिन उनके इस महान आह्वान का खामियाजा केवल भूराबाल ने ही नहीं, पूरे प्रदेश ने भुगता।
इनके साथ उनसे भी तो अपना सवाल पूछिए रेलमंत्री जी जिन्हें आपने चौदह-पंद्रह साल तक अपनी नौटंकी में उलझाए रखा। चरवाहा विद्यालय खोलकर अपने आपको विकास पुरुष कहने और कहलवाने से विकास नहीं होता। होता तो आज भी चरवाहा विद्यालय में पढ़ने वाले आते होते। छात्रों के लिए सिसक-सिसक कर मर नहीं जाते चरवाहा विद्यालय। सिंदुर-टिकुली बांटने से कौन सा विकास होता है? सिवाय अखबारों में बांटने वाले की तस्वीर छपने के और कौन सा भला हुआ उस कवायद का, कोई तो बताए। हप्प-हप्प करके सवालों को खा जाने की उनकी अदा पर मर मिटने वाले भी कब तक वोट देते?
लालू यादव के सवाल का जवाब तलाशती चरचा जारी रहेगी। अगली किस्तों में श्री कौशल शुक्ला कुछ तथ्यों के साथ आपके सामने होंगे।
बुधवार, 25 फ़रवरी 2009
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3 टिप्पणियां:
तो क्या इतना भुगतने के बाद भी बिहार की निरिह जनता फ़िर से इन को वोट देगी ??? जिन पर बीती है, क्या वो फ़िर से यह सब चाहेगी???
आप ने अपने लेख मै बहुत खुल क जनता की जुबान मै जनता का दुख लिखा है, मै बिहारी तो नही लेकिन एक इनंसान का दुख देख कर दुखी जरुर हो जाता हुं.
धन्यवाद इस अच्छॆ लेख के लिये
आपके सवालों का जवाब लालू यादव के पास है तो नहीं...लेकिन अगर उन्हें ये मौका मिले तो इसका भी फायदा उठा लेंगे...एक चुटकुला सुनाएंगे...कुछ लोग हंस देंगे...बस उनका काम हो जाएगा...लालू का प्लस प्वाइंट यही है कि वह अपना पीआर भी खुद ही कर लेते हैं...और वो भी बिल्कुल मुफ्त...आज की राजनीति बस ऐसे ही चल रही है...और हर स्मार्ट पॉलिटिशियन इसी का फायदा उठाता है...और ये सिलसिला तब तक चलता रहेगा जब तक लोगों के सामने एक 'ठोस विकल्प' खड़ा नहीं होता...
इस बहस को जारी रखा जाना चाहिये...हमे कौशल जी के नये लेख का इंतजार है...
लालू पर सीरीज चलाकर आपने अपने ब्लाग नेम को ही सार्थक किया है। आलेखों का इंतजार रहेगा।
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