दादा, आपके नाम यह दूसरी पाती नहीं लिखता, यदि आपने भूल सुधार कर जिन्हें श्रापा था, उनके विजयी भव की कामना नहीं की होती। मैं फिर कहना चाहूंगा दादा, आपने यह क्या कह दिया! कुछ कहूं, इससे पहले मेरा हलफनामा ले लीजिए कि इस बार भी मैं आपकी बातों से पूरी तरह सहमत हूं, आपको यही करना चाहिए। हमारी संस्कृति भी यही है कि मरने वाले के सभी गुनाह माफ कर दिये जाते हैं, फांसी पर लटकाने से पहले उसकी अंतिम इच्छा तक पूछने और उसे पूरा करने का रिवाज है यहां। दादा, आपने बिल्कुल ठीक किया। पर, कुछ सवाल फिर भी हैं, जो जेहन में चकरा रहे हैं, जवाब ढूंढ़ रहे हैं। और यह जवाब मैं आपसे ही चाहूंगा। कोई गुस्ताखी हुई तो माफ कीजिएगा। माफ तो आप कर देते हैं, इसका नमूना आपने दे ही दिया है। जिस पर आप इतने भड़के हुए थे कि उनके चुनाव हार जाने की कामना कर रहे थे, उन सभी को अभी आपने जीतने का आशीर्वाद दे तो दिया।
तो पहला सवाल - दादा, आप अपने आप को क्या समझते हैं? इंसान या भगवान? इंसान समझा होता तो आपको मालूम होता कि आपके कहने से कोई कैसे चुनाव हार सकता था और फिर आपके पलटने से कोई कैसे जीत सकता है? सवाल ठीक है न दादा? या आप खुद को भगवान समझते हैं? आपको लगा कि मेरी जुबान से श्राप निकल गया है तो सामने वाले को यह श्राप लग ही जायेगा, इसलिए तुरंत पलटी मार गये? तो क्या भगवानों को इतनी जल्दी पलटी मारना क्या ठीक है? मुझे मालूम है, आप खुद को भगवान मानने की भूल कतई नहीं कर सकते। तो क्या मैं आपसे यह पूछने की हिमाकत कर सकता हूं कि आप खुद को क्या समझते हैं? क्या यह सिर्फ एक बूढ़े का भीषण प्रलाप था? मैं यह नहीं कहना चाहता कि यह एक किस्म का पागलपन था। या पागलपन ही था? यह सवाल पूरी शिद्दत के साथ आपके सामने सुरसा के मुंह की तरह फैला और चौड़ा हुआ खड़ा है। जवाब आपको ही देना है, दादा।
दूसरा सवाल - दादा, इक्कीसवीं सदी में जहां मानव चांद से आगे निकलकर मंगल और शनि तक जा पहुंचा है, उस दौर में विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक प्रणाली वाले देश में क्या श्राप और आशीर्वाद से ही राजकाज चलाया जायेगा? कामरेडों की आत्मा को आपकी बातों से कितना सुकून मिलेगा, यह तो उनकी आत्मा ही बतायेगी, लेकिन वैश्विक प्रतिस्पर्धा के दौर में जहां राजनीति तक का कारपोरेटाइजेशन हो चला है, लालकृष्ण आडवाणी जैसे हिन्दुत्व विचारधारा वाली पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवार बुजुर्ग नेता युवाओं को रिझाने के लिए साइट औऱ एसएमएस का सहारा ले रहे हैं, उस दौर में कुछ लोगों को साक्षात विजयी भव का आशीर्वाद देकर आपने कितना ठीक किया? बताइए दादा, बताइए।
तीसरा सवाल - और दादा, यह आशीर्वाद यदि एक सामान्य बूढ़े का भीषण प्रलाप था तो हमें लगता है कि आप ही देश को बताएं कि इस प्रकार के एक सामान्य मानसिकता वाले किसी बुजुर्ग को क्या संसद अध्यक्ष की कुर्सी की शोभा बढ़ानी चाहिए? यदि नहीं तो क्या आपको तत्काल अपनी कुर्सी से इस्तीफा नहीं दे देना चाहिए? और यदि आप कुर्सी से इस्तीफा नहीं देते तो क्या यह नहीं मान लिया जाना चाहिए कि आप भी, बुरा मत मानियेगा दादा, आप भी कुर्सी पर चिपके रहने वाले एक वैसे सामान्य नेता से अलग नहीं हैं, जो कुर्सी पर बने रहने के लिए तमाम तरह की तिकड़म करते रहते हैं? मेरा मानना है कि पब्लिक तो सब जानती है, पर एक बार जवाब आपके मुंह से भी आ जाये।
दादा, चुनाव का मौसम चल रहा है। देश में जब से लोकतंत्र की स्थापना हुई है, चुनाव प्रणाली शुरू हुई है, तभी से एक महत्वपूर्ण सवाल अनुत्तरित चल रहा है। आप तो विपक्ष की राजनीति में माहिर रहे हैं। चनावों में आपने देखा होगा कि 51 वोट पाने वाला जीत जाता है, विजयश्री का माला पहन कर आशीर्वाद लेता घूमता है, जबकि 48 वोट पाने वाला हार जाता है, सिर छुपा लेता है, भरे-पूरे लोकतंत्र में नकार दिया जाता है। उसके हारने के साथ ही खत्म हो जाती है 48 वोटों की अहमियत और खत्म हो जाते हैं इन वोटों के सपने। दादा, क्या आपको नहीं लगता कि इक्कीसवीं सदी के वैश्विक और मंदी से भरे इस दौर में देश को इन अड़तालीस वोटों के महत्व को समझने की बड़ी जरूरत है। इसके लिए आप जैसे पहुंचे हुए और महान लोगों के विचार किसी काम आ सकते थे। देश का नक्शा बदला जा सकता था। पर, आप तो श्राप और आशीर्वाद बांटते चल रहे हैं, देश आपसे कौन सी उम्मीद पाले? जिन सभी को आपने विजयी भव का आशीर्वाद दिया, आपको पता है कि उनमें से कितने चुनाव लड़ेंगे और कितने चुनाव नहीं लड़ेंगे? यदि नहीं पता तो पूरी गंभीरता से एक आम भारतीय के नाते मेरा सवाल अपनी जगह कायम है कि यह आपने क्या किया? बताइए दादा, यह आपने क्या किया? मैं आपका जवाब चाहता हूं।
शनिवार, 21 फ़रवरी 2009
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6 टिप्पणियां:
सचमुच ये सवाल भी काफी अच्छे हैं. निरंतर सार्थक लेखन के लिए आपको बधाई.
agle lekh ka intjar rahega.
Bahut shandar!! Aap ek hi lekh me hasya aur gambhir dono tarah ke vichar vyakt karne me mahir hain. sach kahun to aapki pratibha dekh jalan ho rahi hai.
और अरविंद जी, आपकी टिप्पणी से मैं रोमांचित हूं। अपने कंप्यूटर में तत्काल यूनिकोड लोड कराइए ताकि हिन्दी में वार्ता हो सके। धन्यवाद।
Aapke sawal sochne ko majboor karte hain.
दरअसल दादा भी नहीं समझ पा रहे हैं...क्या और कैसे हो रहा है...जब आदमी कुर्सी पर होता है तो उसके देखने का अंदाज भी बदल जाता है...दादा भी मजबूर हैं...उन्होंने मन की बात कही...और फिर...बस...इतना ही वश में है...
"हमारी संस्कृति भी यही है कि मरने वाले के सभी गुनाह माफ कर दिये जाते हैं, फांसी पर लटकाने से पहले उसकी अंतिम इच्छा तक पूछने और उसे पूरा करने का रिवाज है" -- सही लिखा है आपने,
वैसे लोग अपने प्रतिनिधियों से हिसाब तो मांग ही सकते हैं..."मार दिया जाए कि छोड़ दिया जाए...बोल तेरे साथ क्या..."
अब लोगों को यह बताने की जरूरत है कि वे जिसे अपना नेता चुन रहे हैं...उनसे एक बार जरूर पूछें...उनका क्वालिफिकेशन...ठीक वैसे ही जैसे 'जागो रे एड' में एक उम्मीदवार से पूछा जाता है...
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