बुधवार, 21 जनवरी 2009

श्मशान की एक रात...

बस वाले से हमने कहा-हमें छोला श्मशान घाट के पास उतार देना। कंडक्टर समेत समूची बस ने हमें ऐसे देखा मानो हम उनकी जात से बाहर के हों। श्मशान घाट के पास पुलिया पर हमें उतारकर बस चलती बनी। एक अधखुली दुकान वाले से पूछा-श्मशान घाट किधर है? मरघट सामने है-उसने बताया। रात के दस बजे थे। आसपास के सूनेपन से लगा कि रात काफी गहरी हो चुकी है। बारिश हो रही थी। भींगते हुए हम श्मशान घाट की तरफ बढ़े। रास्ते में हमें शेड दिखा। बारिश से बचने के लिए वहां पहुंचे। फर्श पर दो चबूतरे बने हुए थे। शेड के बाहर पेशाब करते दिखे सज्जन (नशे में धुत) हमारे पास आए। गौर से देखा। हमने पूछा-ये चबूतरे क्यों बने हैं?॥जब आप मरेंगे, आपके ये दोस्त मरेंगे, मैं मरूंगा तो श्मशान घाट ले जाने से पहले अर्थी यहीं रखी जाएगी। वे नरेश चौहान थे। उनके इस जवाब से माहौल भुतहा लगने लगा।

यहां से चलकर हम विश्राम (श्मशान) घाट के गेट पर पहुंचे। वहां लिखा था-रात दस बजे के बाद अंतिम संस्कार नहीं होता। गेट बंद था। अंदर दोनों तरफ छोटे-छोटे घर बने हुए थे। इनमें से एक मृत्यु प्रमाण पत्र जारी करने का दफ्तर था। दूसरा विश्राम घाट के प्रबंधक नारायण सिंह कुशवाहा का निवास। दफ्तर के पास बैठे सज्जन को आवाज देकर हमने कहा, कुशवाहा जी से मिलना है। उन्होंने कहा-वे तो गए। सुबह मिलेंगे। कहा-तो आपसे ही कुछ बात करनी है। वे आए। हमने बताया-कुछ लिखना है, रात भर यहीं बैठना चाहते हैं। अखबार का नाम बताया तो उन्होंने दरवाजा खोल दिया। बातचीत के दौरान चाय पिलवायी और बताया कि मैं ही नारायण सिंह हूं। परिवार के साथ यहीं रहता हूं। हमारी इच्छा के मुताबिक कुशवाहा जी ग्यारह बजे हम दोनों को वहां छोड़ आए, जहां मुरदे जलाए जाते हैं। एक बड़े शेड के नीचे बने सोलह खानों में से दो पर अब चिता जल रही थी। उनके आसपास मंडरा रहे थे चार खूंखार कुत्ते। दो हमें देखकर झपटे। कुशवाहा जी ने रोका। वे हमें वहां से कुछ दूर एक शेड के नीचे बिठाकर चले गए। एक बेंच पर बैठ गए। जहां हम बैठे थे, उसके पीछे यानी दक्षिण में नाला था। उत्तर की ओर जीवित लोगों के लिए विश्राम स्थल बना था। पश्चिम की ओर झाड़-झंखाड़ और पूरब की ओर जीवन-मृत्यु का चक्र दिख रहा था। आबादी के नाम पर दक्षिण में कबाड़खाना नाम की बस्ती।

सामने जल रहे दो मुरदों में एक युवक का था, जिसने आत्महत्या कर ली थी। दूसरी चिता एक बुजुर्ग की थी। दोनों चिताओं के शोले अब भी दहक रहे थे। पास मंडरा रहे कुत्तों के अलावा कहीं दूर भी कुत्ते भौंक रहे थे। बूंदाबांदी अब भी हो रही थी। पास में प्लास्टिक पर पानी गिर रहा था। खड़-खड़ की आवाज हो रही थी। कुत्तों के चुप होते ही माहौल अजीब सा हो गया। डर हमें आगोश में लेने की कोशिश कर रहा था। एक अनजाने रोमांच का इंतजार, जो साढ़े दस बजे तक था, वह अब उतना नहीं था। इतने में किसी फैक्ट्री से सायरन की आवाज गूंजी। हमें लगा, जैसे पास में ही शंख बजा हो। हम जीवन-मौत को छोड़कर फ्रायड की बात करने लगे। फिर स्टेशन से रेलगाड़ी की आवाज आई। लगा, आबादी पास ही है और हम आश्वस्त हुए।

सवा बारह बजे अचानक दो कुत्ते उछलकर खडे़ हो गए। लगा, दो मुरदे उठकर खड़े हुए। बोलते हुए हमारे मित्र चुप हो गए। ...आसपास पसरे भय को झटककर हम फिर बातचीत करने लगे। बूंदाबांदी बंद हो चुकी थी। प्लास्टिक पर पानी नहीं गिर रहा था। कुत्ते नहीं भौंक रहे थे। लगा, जैसे हवाएं भी बंद हो चुकी हों। पास में रेलगाड़ी गुजरने की आवाज न आती तो कहीं कुछ नहीं। पता चला, लोग मरघट सा सन्नाटा क्यों कहते हैं।

बातचीत धीमी हो रही थी। हमारा सारा ध्यान इस बात पर था कि यह वक्त गुजरता क्यों नहीं। डर को दूर करने के लिए हमने तय किया-डर तो दिमाग में होता है। असर भी हुआ। हमें लगा, भारी दबाव हमारे ऊपर से हट गया। बातचीत की गाड़ी फिर बढ़ी।
सवा एक हो चुका था। मरघट में होने का भय फिर दबोचने लगा। इस भय के बावजूद, मुझसे कहीं ज्यादा हमारे मित्र को किसी रोमांचकारी घटना का इंतजार था। क्या होगा, यह स्पष्ट नहीं था। जाने कैसे॥बात फिर भूतों की होने लगी। बातचीत एकतरफा हो गई। मुझे लगा, अब मैं सोच नहीं सकता तो बोलूं कैसे? लगा, मेरे दिमाग पर किसी और शक्ति का नियंत्रण हो और वह सोचने पर मजबूर कर हो कि एक झक सफेद कपड़ा पहने कोई आदमकद आकृति अभी निकल पड़ेगी। अपने आप से पूछा, क्या घिग्घी बंधना इसे ही कहते हैं? रात डेढ़ बजे हमने मृत्यु से जुड़े सारे तथ्यों को याद किया। कुछ मुक्त हुआ।

बातचीत अब भी एकतरफा थी। मैं सिर्फ सुन पा रहा था। पौने दो बजे मैंने अपने मित्र से कहा-कुछ देर मैनेजर के पास चलकर बैठें। मेरे इतना बोलते ही दहकती चिताओं के पास बैठे चारों कुत्ते उठकर भौंकने लगे। इन खूंखार कुत्तों को देखकर उपजा डर भी मुझे मरघट के पास बैठने का साहस नहीं दे पा रहा था। लेकिन मेरे मित्र कुत्तों को देखकर कुशवाहा जी के पास जाने की हिम्मत छोड़ बैठे। पर मैं उन्हें जबरन उठाकर ले गया। चिता की बगल से गुजरते वक्त कुत्ते तेजी से झपटे। लगा चीर-फाड़ दिए गए। हम दोनों चुपचाप खड़े हो गए। कुत्तों ने जगह-जगह से सूंघा और छोड़ दिया। हम मृत्यु प्रमाणपत्र दफ्तर के पास जाकर बैठ गए। भय भाग गया। दफ्तर और चिता की दूरी सत्तर-अस्सी मीटर थी। कुशवाहा जी सपरिवार आराम की नींद सोए हुए थे। मच्छरों ने परेशान करना शुरू कर दिया तो हम टहलने लगे। ढाई बजे फिर दफ्तर के पास ही बैठ गए। बैठते ही पेट्रोलिंग (पुलिस) वाले आ गए। गेट पर जीप रोकी। हमने कुशवाहा जी के परिवार के एक सदस्य को जगाया। पुलिसवालों ने उससे पूछा-ये लोग कौन हैं? वह बता नहीं पाया। हमने बताया, अखबार से हैं। अच्छा-अच्छा कहकर आठ-दस मिनट गेट पर ही खड़े रहे। भाव भंगिमा कह रही थी, पगला गए हो?

पौने तीन बजे लगा, जैसे हम कुछ छोड़ रहे हैं। फिर एक अनचाहे रोमांच को पाने की इच्छा जोर मारने लगी। भय दूर हो चुका था। जयंत जी बैठे-बैठे सो रहे थे। जबरन उठाया। वहां ले गए, जहां चिता जल रही थी। कुत्तों के डर से यहां वे आना नहीं चाह रहे थे। पर अब कुत्ते जा चुके थे। दोनों ने राहत की सांस ली। वहीं जाकर बैठ गए, जहां शुरुआत में आकर बैठे थे। बैठते ही बिजली चली गई। घुप्प अंधेरा। लगा मरघट के सारे भूत अब हम पर हमला कर देंगे। मैं सस्वर हनुमान चालीसा पढ़ने लगा। मेरे घोर वामपंथी मित्र भी मेरे सुर में सुर मिला रहे थे। मिनट दर मिनट एक दूसरे को टटोलकर देख रहे थे, हैं भी या नहीं? मेरे मित्र का पता नहीं, पर भय की अधिकता की वजह से मुझे भय का अहसास भी नहीं हो पा रहा था।

अंततः रातभर का सबसे कठिन दौर गुजरा। सवा तीन बजे बिजली आ गई। धड़कनों पर काबू पाया। एक मन हुआ वापस कुशवाहा जी के पास भाग जाएं। पर मन मारकर बैठे रहे। अब तक हमें लगने लगा था कि अंधेरे में कुछ नहीं हुआ तो अब क्या होगा। हम भयमुक्त हो रहे थे। इस कदर कि बस्ती में किसी बच्चे की जोर-जोर से रोने की आवाज भी हमें नहीं डरा पा रही थी। अब हमें मुरदों के जलने से फैली चिरांध का भी अहसास हो रहा था। हम उस गंध से परेशान होने लगे। चिताएं बुझ चुकी थीं। हल्की बारिश के साथ जोर-जोर से हवा चलने लगी। सांय-सांय की आवाज के चलते हमें फिर लगा कि हम मरघट में बैठे हैं। ठंडी हवा सिहरन पैदा कर रही थी। वक्त तीन पैंतीस का था। कौए अब कांव-कांव करने लगे। दूर कहीं से कोयल की आवाज भी आ रही थी। हमें रातभर में कुछ भी अलग न देख पाने की निराशा घेरने लगी थी। अब हमारी बातचीत बिल्कुल सामान्य थी।

सवा चार बजे मसजिद में अजान हुई। पीछे बस्ती के घर अब साफ-साफ दिखने लगे। हमारे मित्र ने कहा, अब कुछ नहीं होगा, चलिए। गेट खुलवाकर हम श्मशान घाट से निकल पडे़। बस पकड़ी। घर आकर खूब सोए।

यह रात हमने कुछ साल पहले श्मशान घाट में गुजारी थी। साथ में मेरे मित्र जयंत सिंह तोमर भी थे। तोमर साहब मुरैना के हैं। फिलहाल बच्चों को पत्रकारिता पढ़ाते हैं। दिन, साल महीने नहीं दे रहे। वह रात मुझे आज भी कल की ही लगती है। श्मशान घाट भोपाल का है।

7 टिप्‍पणियां:

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत सूंदर लगा आप का यह लेख , सच मै बहूत डर लगता है, लेकिन अगर दिल ओर दिमाग पर काबू रहे तो कुछ नही होता.
धन्यवाद

Kaushal Kishore Shukla ने कहा…

पुरुषोत्तम जी, शहरी जिंदगी की भागमभाग में सभ्यता की मौलिक चीजों की सत्यता से आपकी यह रचना रूबरू कराती है। यह एक बेहतर प्रयास है और आप जैसे सुलझे हुए लोग ही ऐसा साहस कर सकते हैं। संभव है, इस प्रकार की आपके पास कई मौलिक अनुभूतियां हों। अपेक्षा है, आप उसे एक-एक कर दुनिया के सामने लायेंगे। आपकी रचनाओं का इंतजार रहेगा।

बेनामी ने कहा…

जीवंत विवरण
हमारा भी बड़ा मन था एक रात ऐसे गुजारने का पर अभी तक मौका नही ले पाये

sandhyagupta ने कहा…

Rochak sansmaran aur jeevant vivran.

alok ने कहा…

आपका लेख पढ़ा. आपने शमशान का इतना सजीव चित्रण किया है कि लगता है कि मै रोमांचित हो उठा. यह विचार भी आया कि काश मै आपके साथ क्यो नही रहा. खैर यह तो समय कि बात है लेकिन मेरा भी मन करता है कि मै भी कभी इस रोमांच को महसूस करू, दिक्कत यह है भाई कि इस समय मै जहा हूँ वहा यह सम्भव नही है क्योकि यहाँ शाम होते ही तमाम गतिविधिया ख़त्म हो जाती है. बहरहाल आपको बधाई कि आपने वहा जाने कि हिम्मत जुटी और वह भी ऐसे समय जब कोई भी वहा जाने की सोचे भी न.

MS ने कहा…

बड़ी अच्छी प्रस्तुति है...स्टोरी टेलर तो आप हैं ही...हर चीज को बारीकी से देखा है आपने...हो सकता है किसी को डरावना लगे...लेकिन पूरा वाकया दिलचस्प है...

MS ने कहा…

पुरुषोत्तम जी...आप वो किस्सा सुनाइए...जब आपने देश के कोने कोने में बिहार को देखा...वहां के लोगों को...लहजे को और उस मिट्टी की खास खांटी खूशबू को...यह मेरी फरमाइश है...और मुझे पूरी उम्मीद है...बाकियों को भी उसमें मजा आएगा...