शुक्रवार, 12 दिसंबर 2008

मां भारती

मां तेरे अचॆन को व्याकुल हैं मेरे अंतर की नारी
किंतु नहीं मैं इसकी सच्ची अधिकारी।

सेवा पथ कदम बढ़ाए थे कई बार
बीच डगर में खींच लाया ये निष्ठुर संसार।

धूप दीप चंदन रोली, सब कुछ था मेरे पास
किंतु दहलीजों तक सिमट गया दीवारों का भाग्य।

कतॆव्य बने बंधन, बंद हुआ मुक्ति का द्वार
उफन रही नदी को बांधेगी कब तक तट की मर्यादा।

एक दिन तो आएगा ज्वार, उस दिन आऊंगी तेरे द्वार
सच्ची होगी मेरी आरती, पुकारेंगी मुझे स्वयं मां भारती।
विजयलक्ष्मी सिंह

3 टिप्‍पणियां:

ghughutibasuti ने कहा…

बढ़िया !
घुघूती बासूती

Unknown ने कहा…

अच्छी रचना है.

मां का आँचल तो हर समय गीला रहता है. मां तो हर समय पुकारती रहती है पर हम अपने ही धंधों में फंसे रहते हें. कभी सुनते नहीं, कभी सुनी अनसुनी कर देते हें.

राष्ट्र मंच पर कहाँ खड़े हें सोचें जरा, हें सुपुत्र भारत माता के या उस के दुःख का कारण हें?

vijay kumar sappatti ने कहा…

bahut achai deshprem se bharpoor ,veerta se oatpret kavita ,

aapko bahut badhai .


vijay
poemsofvijay.blogspot.com